________________
४०
सद्धर्मसंरक्षक
जीवों असंज्ञी पंचेन्द्रिय मनुष्यों तक की उत्पत्ति होना माना है । इसको हम पहले कह चूके हैं ।
(ई) मुख पर मुँहपत्ती बाँधने से भी मुख के वायु और शब्द मुँहपत्ती को पार करके अथवा उसके चारों तरफ से निकल कर बाहर आते हैं, रुक नहीं सकते। क्योंकि मुख से निकला हुआ शब्द जब वायु के द्वारा बाहर आता है तभी कान से सब को सुनाई देता है। जैनागमों में शब्द का तुरन्त चौदह राजलोक तक (सारे ब्रह्मांड में) फैल जाने का वर्णन है । यदि मुख के शब्द और वायु से जीवहिंसा संभव है, तो मुंहपत्ती बांधने पर भी वायुसहित शब्द के बाहर आ जाने से हिंसा न रुक सकेगी।
अतः स्पष्ट है कि मुख के शब्द, बाष्प और वायु से वायुकायादि के जीवों की हिंसा मानकर मुँह पर मुँहपत्ती बाँधना न तो आगमानुकूल है और न ही प्रत्यक्ष प्रमाण और तर्क की कसौटी पर कसने से उपयुक्त है। इसके विपरीत मुँहपत्ती बाँधने से स्थावर जीवों की हिंसा न होकर उस जीवों की हिंसा अवश्य संभव है।
(१३) नगरनिद्धमणे-नगर की मोरी में, (१४) सव्र्व्वसु असुद्वासु सव अशुचि के स्थानों में ।
उपरोक्त चौदह स्थानों में सम्मूच्छिम मनुष्य उत्पन्न होते हैं। उनकी अवगाहना अंगुल के असंख्यातवें भाग परिमाण होती है। उनकी आयु अन्तर्मुहूर्त की होती है । अर्थात् वे अन्तर्मुहूर्त में ही मर जाते हैं। ये असंज्ञी (मन रहित), मिथ्यादृष्टि, अज्ञानी होते हैं । अपर्याप्त अवस्था में ही इनका मरण हो जाता है। (पन्नवणा पद १ सूत्र ५९) (आचारांग) (अनुयोगद्वार )
नोट विज्ञान ने सूक्ष्मदर्शक यंत्र से भी धूक आदि में सम्मूमि उस जीवों की उत्पत्ति और विनाश अल्पसमय में होना प्रत्यक्ष कर दिखलाया है।
Shrenik/D/A-SHILCHANDRASURI / Hindi Book (07-10-2013) / (1st-11-10-2013) (2nd-22-10-2013) p6.5
[40]