________________
श्रीबूटेराबजी और शांतिसागरजी
१५५
मकान, भूमि परिवार आदि सब प्रकार के बाह्य परिग्रह रहित श्रमणों को निर्बंध कहते हैं। इन निग्रंथों के आचार का प्रतिपादन करने के लिये जिन आगमसूत्रों की रचना हुई, ये सूत्र 'निग्रंथ प्रवचन' के नाम से पहचाने जाते हैं । इन आगमों में साधु के लिये जो नियम बतलाये गये हैं उन्हीं के अनुसार जैन साधु आचरण करते थे । वे लोग गांव-नगर के बाहर बगीचों में वसती माँगकर उतरते थे। आवश्यकता पडने पर नगर में रहते तो गृहस्थ का मकान माँ कर उसमें रहते थे। उनके निमित्त बने हुए आहार पानी वसती को आधाकर्मी दोषवाला होने से वे कदापि ग्रहण नहीं करते थे। वे धर्मोपकरणों के सिवाय दूसरी वस्तुओं का संग्रह भी नहीं करते थे क्लेश और झगडों से दूर रह कर वे समाधि में लीन रहते थे। आडम्बर, छल, प्रपंच, दंभ, कदाग्रह आदि से कोसों दूर रहते हुए लोगों को सच्चा आत्म-कल्याणकारी मार्गदर्शन कराते थे । ऐसे निग्रंथ सदा स्व पर कल्याण करने में तत्पर रहते थे
इस प्रकार प्रभु महावीर से एक हजार वर्ष तक ऐसी शुद्ध परम्परा चालू रही। परन्तु भगवान के ८५० वर्ष के बाद कुछ यतियों ने उग्रविहार का त्याग कर चैत्यवास की शुरूआत की, और मन्दिरों की आय के साधन के माध्यम से अपना निर्वाह करने लगे । मुख्य भाग तो वसतीवासी ही रहा। क्योंकि उस समय देवर्द्धिगणि क्षमाश्रमण जैसे गीतार्थ तथा शुद्ध चारित्र का पालन करनेवाले चारित्रचूडामणि मुनियों ने वीरनिर्वाण से ९८० (दूसरे मत से ९९३) वर्ष बाद आगमों को लिपिबद्ध किया । देवर्द्धिगणि क्षमाश्रमण का स्वर्गवास वीर संवत् १००० में हुआ । जिसका वर्णन नवांगी टीकाकार अभयदेवसूरि (जो वि० सं० ११२० में
Shrenik/D/A-SHILCHANDRASURI / Hindi Book (07-10-2013) / (1st-11-10-2013) (2nd-22-10-2013) p6.5
[155]