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सद्धर्मसंरक्षक विद्यमान थे) ने आगम-अट्टोत्तरी नामक ग्रन्थ में नीचे की गाथा में किया है।
"देवटि-खमासमण जा, परंपरं भावओ वियाणेमि । सिढिलायारे छविया-दव्वेण परंपरा बहुहा ।"
भावार्थ - देवद्धि(गणि) क्षमाश्रमण तक भाव परंपरा मैं जानता हूँ। बाद में तो शिथिलाचारियों ने अनेक प्रकार से द्रव्य परम्परा कायम की है।
अतः वीर प्रभु के ८५० वर्ष बाद चैत्यवास का प्रादुर्भाव होकर धीरे-धीरे शिथिलता बढ़ने लगी। तथा वे लोग ऐसे ग्रन्थों की रचना करने लगे कि चैत्यों में साधुओं के निमित्त बनाये हुए मकानों में रहना उचित है, पुस्तकों आदि के लिये द्रव्यसंग्रह करना उचित है। इस प्रकार अनेक प्रकार के शिथिलाचारों की ये लोग पुष्टि करने लगे और वसतीवासी मुनियों की ये लोग निन्दा करने लगे।
देवद्धि(गणि) क्षमाश्रमण तक साधुओं का मुख्य गच्छ एक ही था तो भी कारणवशात् व्यवस्था की दृष्टि से भिन्न-भिन्न नामों से सम्बोधित होता था।
जैसे कि शुरूआत में इसके मूल संस्थापक श्रीमहावीर प्रभु के पाँचवें गणधर श्रीसुधर्मास्वामी के नाम से सौधर्मगच्छे
१. नवांगीवृत्तिकार श्रीअभयदेवसूरिजी ने "आगमअट्ठोत्तरी" नामक ग्रन्थ की रचना की है ऐसा उल्लेख आजतक मेरे देखने में नहीं आया। फिर भी श्रीशांतिसागरजी के अनुसार यह कोई ग्रन्थ अभयदेवसूरि रचित हो, ऐसा लगता है। तज्ज्ञ विद्वान इस बात पर उचित प्रकाश डालें, ताकि सत्यासत्य का निर्णय हो सके।
२. ऊपर जो शांतिसागरजी ने लिखा है कि "सुधर्मास्वामीके नाम से सौधर्मगच्छ कहलाया था" यहाँ से लेकर "कौटिकगच्छ कहलाया" तक भ्रांतिपूर्ण है। परन्तु
Shrenik/DIA-SHILCHANDRASURI / Hindi Book (07-10-2013) 1(1st-11-10-2013) (2nd-22-10-2013) p6.5
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