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सद्धर्मसंरक्षक वहाँ के सकल श्रीसंघ की भावना है कि यह संघ आपश्रीजी की निश्रा में जावे। संघ ने विनती करने के लिए आपश्री के पास हम लोगों को भेजा है। जो गुरुदेव ! आपश्री दिल्ली पधारने की कृपा करें ।” गुरुदेवने उनकी विनती को मंजूर कर लिया और वि० सं० १९२० ( ई० स० १८६३) का चौमासा रामनगर में करके पिंडदादनखाँ होते हुए गुजरांवाला में पधारे। वहां से ग्रामानुग्राम विहार करते हुए वि० सं० १९२१ ( ई० स० १८६४) को दिल्ली पधार गये। यहां से छ'री पालते यात्रासंघ के साथ श्रीहस्तिनापुर की यात्रा कर वापिस दिल्ली पधारे और वि० सं० १९२१ ( ई० स० १८६४) का चौमासा आपने दिल्ली में किया ।
चौमासा उठने के बाद फिर आपने पंजाब की तरफ विहार कर दिया । पानीपत, करनाल, अम्बाला, साढौरा, सामाना, पटियाला, मालेरकोटला आदि अनेक नगरों और ग्रामों में विचरते हुए आप गुजरांवाला में पधारे । यहाँ पर आपने जयदयाल बरडको प्रतिब दिया । कुछ दिन यहाँ स्थिरता करके वि० सं० १९२२ (वि०स० १८६५) का चौमासा आपने पुण्यविजय, मानकविजय, भावविजय के साथ पपनाखा में किया । वि० सं० १९२२ मिति आसोज सुदी १० ( ई० स० १८६५) को पपनाखा में नवनिर्मित जिनमंदिर की प्रतिष्ठा करवाकर श्रीसुविधिनाथ भगवान को मूलनायक के रुप में गादीनशीन किया । चौमासे उठे आप गुजरांवाला पधारे । लोंका (स्थानकमार्गी) साधु खरायतीलाल का चेला गणेशीलाल था । होशियारपुर में गुरु-चेले की आपस में खटपट हो गई । तब गणेशीलाल मुँहपत्ती का डोरा तोडकर और अपने गुरु का साथ छोडकर गुजरांवाला में आपके पास चला आया और दीक्षा आपका शिष्य बना। उसका नाम आपने विवेकविजय रखा । वि०
Shrenik/D/A-SHILCHANDRASURI / Hindi Book (07-10-2013)/(1st-11-10-2013) (2nd-22-10-2013) p6.5
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