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पंजाब में पुनः आगमन और कार्य सं० १९२२ (ई० स० १८६५) का चौमासा विवेकविजय और रतनविजय का गुजरांवाला में हुआ । बाद में विवेकविजय दीक्षा छोडकर यति हो गया। उसने मुर्शिदाबाद (बंगाल) में जाकर अपना नाम बदलकर भगवानविजय रख लिया। वह अपने आप को चेला तो बूटेरायजी का ही कहता रहा।
गुजरात में मुनिश्री नित्यविजय(नीतिविजय)जी ने डीसा में पांच श्रावकों को दीक्षा दी। दो को अपने चेले बनाया और तीन को पूज्य बूटेरायजी के नाम से दीक्षा देकर अपने गुरुभाई बनाया, उनके नाम क्रमशः मुक्तिविजय, भक्तिविजय, दर्शनविजय रखा ।
वि० सं० १९२३ वैशाख सुदी ३ (ई० स० १८६६) को किला-दीदारसिंह में श्रीवासुपूज्य प्रभु को मूलनायक स्थापन करके श्रीजिनमंदिर की प्रतिष्ठा कराई । यहाँ के क्षेत्रपाल बडे प्रत्यक्ष थे।
अब आपकी भावना चर्चा (शास्त्रार्थ) करने की मंद पड गई थी। आप सोचते थे कि वाद-विवाद में क्या पडा है, कदाग्रही जीव बहुत हैं। जब चर्चा वितंडावाद का रूप धारण कर लेती है तब निर्णय तो कुछ होता नहीं, परन्तु राग-द्वेष की वृद्धि और हो जाती है। यदि कोई जिज्ञासु और तत्त्वनिर्णीषु सत्यमार्ग समझने का इच्छुक होगा तो उससे वार्तालाप करने से ही उसको विवेकदृष्टि जाग्रत हो सकती है। ऐसे व्यक्ति का समाधान करने में कोई हानि नहीं है। आपने वि० सं० १९२३ (ई० स० १८६६) का चौमासा रामनगर में किया । चौमासे उठे आपने गुजरांवाला होकर लाहौर की तरफ विहार किया। इन दिनों पिंडदादनखा का प्रसिद्ध श्रावक लाला देवीसहाय ओसवाल भावडा अनविध-पारख गोत्रीय व्यापार के लिए अमृतसर आया हुआ था। तब साधुमार्गी श्रावकों ने लाला
Shrenik/DIA-SHILCHANDRASURI / Hindi Book (07-10-2013)/(1st-11-10-2013) (2nd-22-10-2013) p6.5
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