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नहीं पूछना। नाथजी ने बहुत कहा, रुको, बड़ा कीमती प्रश्न था, अच्छी चर्चा होती। वह बोला, फिर आऊंगा। अभी चर्चा करने का कोई रस न रहा। मृत्यु ने सारा रस विरस कर दिया है।
उठा, राह पर चलता था, पैर कंपने लगे! मृत्यु का भाव घना हो गया। द्वार पहुंचा, गिर पड़ा! चेहरा काला पड़ गया, इतने से मार्ग में! लोगों ने उठा कर घर बिठाया, पूछा, क्या हुआ? बताया कि सात दिन और–आवाज ऐसी आती थी, जैसे दूर गड्डे से आती हो! डूब गई आवाज। लेट गया बिस्तर पर। दूसरे दिन सबसे क्षमा मांग आया किसी तरह चल कर। पैर छू आया, जिनसे कभी भूल-चूक हुई थी, दो कडुवे शब्द कहे थे। बिस्तर पर लग गया! रोज घड़ी-घड़ी मौत करीब आने लगी। एक-एक क्षण लंबा हो गया, बीतना कठिन हो गया! एक ही प्रतीक्षा रह गई! कमरे में आसन्न मृत्यु की छाया घनी होने लगी! मृत्यु करीब से करीब उसकी खाट के चली आती थी। मृत्यु ही रह गई थी, और कुछ न था। सारी वासनाएं, सारे विकार, सबकी जगह मृत्यु खड़ी हो गई थी। मृत्यु ही ठंसी थी! हाथ हिलाता था तो मृत्यु लगती थी, अनुभव होती थी! आंख खोलता था तो मृत्यु दिखती थी! श्वास लेता था तो मृत्यु ही श्वास में भीतर-बाहर हो रही थी! सब मृत्युमय हो गया था!
सातवें दिन सूरज डूबने के घड़ी भर पहले एकनाथ उसके घर गए। भीतर गए, घर के लोग रोने लगे थे। उसकी आंख से आंसू टपक रहे थे। करीब आ गई थी घड़ी, और थोड़ी देर थी। और क्षण कुछ सरकेंगे, और सब समाप्त हो जाएगा। सब बनाया हुआ, सब इकट्ठा किया हुआ, सब जिसे जाना कि अपना है, सब जो मेरे मैं को भरता था, सब विसर्जित हो जाएगा। सारी दौड़-धूप स्वप्न हुई जाती थी। नाथजी ने जाकर पूछा, मित्र! एक बात पूछने आया हूं। उसने
आंख खोली। मरणासन्न व्यक्ति, आंखें डूब गई थीं, जीवन की ज्योति बुझ गई थी। नाथजी ने पूछा, एक प्रश्न पूछने आया हूं, सात दिन में कोई पाप, कोई विकार, कोई वासना मन में उठी? उस आदमी ने कहा, क्यों मजाक करते हैं नाथजी! मृत्यु इतने करीब थी कि मेरे और उसके बीच किसी पाप को उठने की गुंजाइश नहीं थी। मृत्यु इतने करीब थी कि विकार उठ आए, इसके लायक भी फासला मेरे और उसके बीच नहीं था।
नाथजी ने कहा, तेरी मृत्यु अभी आई नहीं, केवल तेरे प्रश्न का उत्तर दिया है।
सात दिन बाद मृत्यु हो या सत्तर वर्ष बाद, क्या अंतर पड़ता है? सात दिन बाद समाप्त हो जाता हो या सत्तर वर्ष बाद यह शरीर, तो क्या अंतर पड़ता है? सच ही सात दिन में और सत्तर वर्ष में कोई अंतर है? एक स्वप्न सात दिन का देखा या सत्तर वर्ष का, कोई भेद पड़ेगा?
नाथजी ने कहा था, तू अभी मरने को नहीं, उत्तर दिया है। मुझे मृत्यु दिखती है। यह शरीर मरेगा। जिस दिन से यह दिखा कि यह शरीर मरेगा उसी दिन से शरीर से सारी आस विलीन हो गई है।
मृत्यु के प्रति कोई आसक्त नहीं हो सकता है। मृत्यु के प्रति आसक्त होना असंभव है। केवल हम जीवन के प्रति आसक्त हो सकते हैं। हम शरीर को जीवन मानते हैं, इसलिए आसक्त हैं। लेकिन अगर हम दोहराएं, समझाएं अपने को कि हम शरीर नहीं हैं; यह शरीर तो मरेगा, हम तो अमृत हैं, हम तो नित्य आत्मा हैं, अगर हम ऐसा समझाएं, विचार करें, चिंतन करें, तो क्या कुछ उपलब्ध हो जाएगा?
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