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होता है, उसी क्षण जीवन से भय विलीन हो जाता है। जिसका स्वयं का भय विलीन हो गया, वह अहिंसक हो जाता है, वह हिंसक नहीं रह जाता है। अहिंसक होने की सीढ़ी, अहिंसक होने का मार्ग आत्म-ज्ञान का मार्ग है।
अपने को जानना होगा, अपने से परिचित होना होगा। सारे जगत को जानें और अपने से अपरिचित, दो कौड़ी का है ज्ञान फिर। उसका कोई मूल्य नहीं है। मैं सारी दुनिया को जान लूं
और मेरे भीतर अंधेरा घना हो—इस जानने का क्या होगा? क्या है प्रयोजन? क्या हुआ अर्थ? क्या पाया? धोखा है, प्रवंचना है, अपने को समझा लेना है। यह पांडित्य और यह ज्ञान किसी काम का नहीं। महावीर के बाबत सब कुछ जान लूं, राम के बाबत सब कुछ जान लूं, कृष्ण के बाबत सब कुछ जान लूं, और यह जो भीतर बैठा है, अपरिचित रह जाऊं, दो कौड़ी की है यह सब जानकारी। यह नाहक का मनोरंजन है, अपने समय को खराब कर लेना है। सारे शास्त्र पढ़ डालूं और भीतर जो शास्त्रों का पढ़ने वाला बैठा है, अनपढ़ा रह जाए, कुछ नहीं किया मानना होगा, कछ नही पाया मानना होगा।
महावीर कहते हैं, एक को जान लेने से सब जान लिया जाता है। उस एक को जानना जरूरी है, उसके जानने का परिणाम अहिंसा होगी। कैसे जानें? ।
जानते तो हैं अपने को। नाम परिचित है। कितना धन है, बैंक बैलेंस कितना है, वह भी परिचित है। किसका लड़का हूं, वह भी परिचित है। किसका भाई हूं, किसका पति हूं, वह भी सब परिचित है। लेकिन यह सारा परिचय शरीर का परिचय है। यह शरीर किसी का लड़का होगा, यह शरीर किसी का पति होगा, यह शरीर जवान होगा या बूढ़ा होगा। इस शरीर का कुछ नाम होगा, लेकिन इस शरीर के पीछे जो बैठा है, वह किसी से संबंधित नहीं है। जो भी किसी से संबंधित है, वह मैं नहीं हूं। भीतर एक चेतना है असंग और असंबंधित, जिसका न कोई जन्म है, न मृत्यू है। उसको जानना होगा। उसका परिचय ही आत्म-ज्ञान बनेगा।
हम शरीर पर ठहर जाते हैं! जीवन शरीर पर केंद्रित होकर घूम लेता है और समाप्त हो जाता है। शरीर की वासनाएं, शरीर की दौड़, शरीर की आकांक्षा, शरीर की प्यास, उसी में व्यय हो जाता है! और उसको देख ही नहीं पाते हैं जो शरीर की इस कारा के पीछे खड़ा है। जो शरीर का मालिक था, जो शरीर में बसा था, निवासी था, उस अदेही को, जो देह में बैठा हुआ है, हम नहीं जान पाते हैं। देह की दौड ही सब रिक्त कर देती है।
महाराष्ट्र में एक साधु हुआ, एकनाथ। एक व्यक्ति ने एकनाथ से एक सुबह पूछा था, नाथजी, आपको देखते हैं, एक प्रश्न मन में बार-बार उठता है। क्या आपके मन में पाप पैदा नहीं होता? वासना नहीं उठती? विकार नहीं जगते? विषाक्त पशु आपके भीतर गति नहीं करते? नाथजी ने कहा, उत्तर अभी दूं? एक मिनट ठहर जाओ, एक बहुत जरूरी बात कह दूं। फिर उत्तर दे दूंगा, कहीं भूल न जाऊं। कल अचानक तुम्हारे हाथ पर नजर पड़ी, देखा मृत्यु की रेखा टूट गई है। सात दिन और, और तुम समाप्त हो जाओगे। सात दिन बाद सूरज डूबा, तुम्हारा भी डूबना है। यह बता दूं, कि कहीं भूल न जाए इसलिए। अब पूछो, क्या पूछते हो? ।
उस आदमी के हाथ-पैर कंप गए। सात दिन और! केवल सात दिन! उसके भीतर तो अचानक उदासी, अवसाद घना हो गया। वह बोला, फिर मैं आऊंगा प्रश्न पूछने, अभी कोई प्रश्न
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