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उनके जीवन में जो क्रांति होती है, वह क्या है? आखिर हम भी सुख को चाहते हैं, महावीर भी सुख को चाहते होंगे। दुख को चाहने वाला तो कोई पैदा नहीं होता। तो फिर क्या घटना घट जाती है कि जिस पथ पर हम खोजते हैं उससे महावीर हट जाते हैं? उन्हें एक तथ्य का दर्शन हो जाता है कि सुख की कोई भी खोज दुख को मिटाने में असमर्थ है। और भी इससे गहरे में उन्हें एक दर्शन होता है कि जिसे हम सुख जानते हैं वह दुख का ही छिपा हुआ रूप है, वह सुख भी नहीं है। जिसे हम सुख जानते हैं वह दुख का ही छिपा हुआ रूप है, वह सुख भी नहीं है। यह भी कभी हमने विचार नहीं किया होगा। हमने सुख अनुभव किए हैं, दुख अनुभव किए हैं। लेकिन हमने विचार नहीं किया होगा कि ये सुख और दुख जिन्हें हम सुख और दुख करके जानते हैं, इनमें फर्क क्या है? कोई फर्क है या नहीं है फर्क?
__ क्या आपको ज्ञात है कि सुख और दुख में कोई बुनियादी एकता है? दोनों के भीतर कोई एक ही सूत्र पिरोया हुआ है? एक छोर पर सुख है, दूसरे छोर पर दुख है, दोनों भीतर से कहीं जुड़े हैं, यह आपको शायद खयाल में न आया हो। लेकिन यह खयाल में आ सकता है। दोतीन बिंदुओं पर विचार करेंगे तो यह खयाल में आ सकता है।
पहला तो यह कि कोई भी सुख दुख में परिवर्तित हो सकता है और कोई भी दुख सुख में परिवर्तित हो सकता है। और परिवर्तन दो चीजों में तभी हो सकता है जब स्वरूप में उन दोनों में समानता हो, नहीं तो परिवर्तन नहीं हो सकता। पानी भाप बन सकता है, भाप पानी बन सकती है; बर्फ पानी बन सकता है, पानी बर्फ बन सकता है। क्यों? क्योंकि मूलतः पानी, भाप और बर्फ एक ही चीज की अवस्थाएं हैं, इसलिए उनमें परिवर्तन हो सकता है। दो विरोधी चीजों में कभी कोई परिवर्तन नहीं होता। दो विरोधी चीजों में कभी कोई परिवर्तन नहीं होता, कोई एक्सचेंज नहीं हो सकता। वे स्थितियां आपस में बदल नहीं सकती हैं। जिनका भी परिवर्तन होता है वे एक ही चीज के दो रूप होते हैं।
क्या आपको खयाल है, जिस सुख से आप परिचित हो जाते हैं वह धीरे-धीरे दुख हो जाता है? क्या कभी आपने विचार किया है कि जिस सुख को हम पा लेते हैं, पाते क्षण जो सुख मालूम होता है थोड़े ही दिन बीतने पर वह सुख नहीं रह जाता और बहुत ज्यादा दिन बीत जाने पर दुख भी हो सकता है? बहुत ज्यादा दिन बीत जाने पर दुख हो सकता है-वही सुख! क्या आपको पता है कि बहुत सुख की तीव्रता में किसी की मृत्यु भी हो सकती है!
और निश्चित ही, मृत्यु कोई सुख नहीं होगी। बहुत सुख का आवेग हो तो आदमी का हृदय भी बंद हो सकता है चलना। सुख भी इतनी गहरी अशांति है कि अगर उसकी मात्रा ज्यादा हो तो प्राण ले सकती है। और क्या आपको यह भी खयाल है कि जो चीज थोड़ी मात्रा में सुख देती है, थोड़ी मात्रा और बढ़ाएं, एक सीमा पर जाकर दुख शुरू हो जाएगा?
जो भोजन प्रीतिकर लगता है, उसे सीमा के बाहर करते चले जाएं, आप पाएंगे कि वही भोजन अप्रीतिकर हो गया; और ज्यादा किए चले जाएं, पाएंगे दुख हो गया; और ज्यादा किए जाएं, पाएंगे कि मृत्यु का कारण हो गया। तो जो शुरू में सुख था वह थोड़ी देर बाद अप्रीतिकर हुआ और दुख हो गया और थोड़ी देर बाद मृत्यु बन सकता है। तो यह तो एक ही चीज का विकास हुआ, ये कोई दो चीजें न हुईं।
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