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लेकिन जब सुख व्यक्ति को मिलता है, कष्ट कोई भी नहीं रह जाता, सुख सब उपलब्ध हो जाते हैं, तब पहली दफा उसे दर्शन होता है कि कष्ट बहुत बाहरी कष्ट था, एक और कष्ट भी है अंतस में जिसका नाम दुख है । वह सुख के बाद अनुभव होना शुरू होता है। जब सब सुख पास होते हैं और फिर भी दिखाई पड़ता है कि मैं रिक्त हूं, खाली हूं, अधूरा हूं, अज्ञान में हूं। सारा सुख बाहर होता है, फिर भी भीतर लगता है जीवन में कोई अर्थ नहीं है, कोई प्रयोजन नहीं है। सब सुख बाहर होता है, फिर भी भीतर अनुभव में आता है कि इस तरह जीते चले जाने में कोई भी कारण नहीं है। इस जीने का कोई प्रयोजन नहीं है, कोई अभिप्राय नहीं है। एक मीनिंगलेसनेस मालूम होती है, एक अर्थहीनता मालूम होती है। तब दुख का जन्म होता है।
कष्ट और दुख में भेद है । कष्ट भौतिक असुविधा है, दुख आत्मिक पीड़ा है। दुख है एक आंतरिक पीड़ा। इसलिए कष्ट को तो सुविधाएं जुटा कर मिटाया जा सकता है, लेकिन दुख को सुविधाएं जुटा कर नहीं मिटाया जा सकता। कितनी ही सुविधाएं हों दुख उससे समाप्त नहीं होता है। दुख समाप्त नहीं हो सकता, क्योंकि दुख आंतरिक पीड़ा है।
सुख से दुख नष्ट नहीं हो सकता, क्योंकि सुख बाह्य उपलब्धि है, बाह्य संपत्ति है और दुख आंतरिक पीड़ा है। जो आंतरिक पीड़ा है वह बाहर की किसी भी व्यवस्था से नष्ट नहीं हो सकती है। बाहर हम सब इकट्ठा कर लेंगे और भीतर दुख का घाव वैसा का वैसा बना रहेगा, बल्कि जितना बाहर इकट्ठा होता जाएगा उतना वह घाव तीव्र रूप से दंश देने लगेगा। क्योंकि कष्ट कम हो जाएंगे और ध्यान एकदम दुख पर जाने लगेगा। जिनके पास कष्ट बहुत हैं उन्हें दुख का दर्शन नहीं हो पाता । कष्ट में ही उलझा हुआ चित्त रह जाता है और दुख के दंश का ब नहीं होता।
महावीर के पास सब सुख था इसलिए दुख का दर्शन हो सका । जरूरी नहीं है कि सभी लोगों के पास जब सब सुख हों तभी उन्हें दुख का दर्शन हो । जो जानते हैं, विचार करते हैं, विवेक करते हैं, वे केवल विचार के मार्ग से भी इस सत्य को अनुभव कर सकते हैं कि मैं कितने ही सुख उपलब्ध कर लूं, मेरा दुख उससे समाप्त नहीं होगा। लेकिन हम सारे लोगों की दौड़ ही यह होती है कि हम सुख इकट्ठा कर ताकि दुख नष्ट हो जाए। इससे ज्यादा गलत और कोई दौड़ नहीं हो सकती।
एक बादशाह हुआ। एक छोटे से राज्य का राजा था। रात को उसने देखा कि उसके भवन की खपरैल पर कोई चल रहा है। वह सोया हुआ है । खपरैल पर किसी को चलते हुए देख कर उसे लगा : क्या? कौन पागल है ? और राजा के भवन पर ऊपर खपरों पर चलता है आधी रात में, अंधेरी रात में ! उसने चिल्ला कर पूछा कि कौन है ऊपर?
ऊपर से एक आवाज आई कि मेरा ऊंट खो गया है, उसे मैं खोजता हूं।
उस राजा ने कहा, कोई पागल मालूम होते हो। ऊंट खो गया हो तो मकानों की छतों पर खोजा जाता है ? और खोया हुआ ऊंट किसी की छप्पर पर मिलेगा ? कौन हो, नीचे आओ ! उस आदमी ने कहा, अगर मैं पागल हूं तो मैं तुम्हें भी बता दूं तुम भी कुछ कम पागल नहीं हो। धन में, सिंहासन में और राज्य में कहीं सुख मिलता है ! और अगर धन में कोई सुख खोजता हो तो फिर किसी के छप्पर पर ऊंट खोजने में कोई असंगति नहीं है ।
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