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कैसा! वहां त्याग कैसा! क्योंकि मैं की तो यह घोषणा है कि मैं पजेस करता हूं, मैं इसका मालिक हूं। दान करने वाला भी मालकियत नहीं छोड़ता, ओनरशिप नहीं छोड़ता। वह यह कहता है, मैं दान करता हूं, मालिक मैं हूं। लेकिन महावीर कहते हैं कि मैं मालिक नहीं हूं, इसका मुझे पता चल गया। मैं दान क्या करूं! मैं किस चीज का दान करूं! कोई मेरी चीज होती तो मैं दान करता। कोई मेरी चीज होती तो मैं बांट देता। कोई मेरी चीज होती तो मैं छोड़ देता। मैं तो इस अनुभव पर पहुंचा हूं कि मेरी कोई चीज नहीं। असल में मैं ही कुछ नहीं हूं, मेरी चीज कुछ नहीं है। तो मैं कैसे दान, कैसा त्याग, कैसा अपरिग्रह!
लेकिन ढाई हजार साल से यह समझाया जा रहा है : अपरिग्रह! छोड़ो! पता नहीं हमें कि छोडने के पीछे मेरे होने का भाव मौजद है।
एक संन्यासी से मुझे बात होती थी, वह मुझसे कहते थे कि मैंने लाखों रुपये पर लात मार दी। मैं हैरान हो गया। मैंने कहा, यह लात कब मारी? वह कहने लगे, कोई तीस साल हो गए। मैंने कहा, तीस साल हो गए। तो फिर लात ठीक से लग नहीं पाई। कहने लगे, क्यों? मैंने कहा, इसलिए कि तीस साल तक फिर उसकी याद कैसे रह सकती थी! याद अब तक बनी है। याद ओनरशिप है। स्मृति इस बात की गवाही है कि मैं मालिक था तीस साल पहले। और मेरी मालकियत की ही हैसियत से मैंने त्यागा। उस त्याग में मेरी मालकियत मौजूद थी। उस त्याग के बाद भी मौजूद है। मैं त्यागी हूं अब भी कि मैंने उन्हें छोड़ा था। मालकियत खत्म नहीं हुई।
महावीर मालकियत नहीं देखते हैं जीवन में। कोई मालिक नहीं है, कोई मालिक नहीं है। इसलिए कैसा परिग्रह, कैसा अपरिग्रह! कैसा जोड़ना, कैसा त्यागना! अपरिग्रह परिग्रह की ही छाया है। त्याग संग्रह की ही छाया है। लेकिन महावीर कहते हैं, न संग्रह, न परिग्रह है, न अपरिग्रह है, न त्याग, मेरा कुछ भी नहीं है। यह भाव, यह बोध, यह समझ, यह गहराई जब जीवन में उपलब्ध होती है...।
अहिंसा, अमैथुन, अपरिग्रह, ये तीन गलत शब्द गलत इमेज पैदा करते हैं। प्रेम, ब्रह्मभाव, अहंकार-शून्यता, मैं नहीं हूं, मेरा कुछ नहीं है, ये महावीर की ठीक प्रतिमा को उपस्थित करते हैं। और ठीक प्रतिमा दिखाई पड़े तो उस प्रतिमा के कारण हमारे मन में भी, जीवन में भी एक नया आंदोलन, एक नई दृष्टि, एक नया दर्शन शुरू हो सकता है। हम एक नई यात्रा पर निकल सकते हैं।
तो मैं प्रार्थना करता हूं, अग्निपूजक मत बने रहें। पूजा का धर्म से कोई संबंध नहीं। अग्नि के उपभोक्ता बनें, कंज्यूमर्स! अग्नि को जलाएं, घर को रोशन करें, रोटी बनाएं। मकान को गर्म करें, दीया जलाएं, अंधेरे रास्तों पर रोशनी करें-अग्नि के उपभोक्ता बनें। धर्म के भी पूजक नहीं, धर्म के भी उपभोक्ता, कंज्यूमर्स, धर्म को भी पी जाएं घोल कर, रोटी बनाएं, खाएं उसे। जीएं, श्वास-श्वास में पीएं और जीवन में उसको फैलने दें। धार्मिक लोग चाहिए दुनिया में, धर्म-पूजक नहीं। धार्मिक जीवन चाहिए, धर्म-मंदिर नहीं। धर्म-चेतना चाहिए, धर्म-शास्त्र नहीं। धार्मिकता चाहिए-धार्मिकता–लेकिन धर्म नहीं। हिंदू, मुसलमान, जैन, ईसाई नहीं।
महावीर न तो जैन हैं, मोहम्मद न मुसलमान हैं, जीसस क्राइस्ट न क्रिश्चियन हैं, राम न हिंदू हैं, लेकिन हमारी नासमझी, मूढ़ता के कारण हमने घेरे बना रखे हैं। महावीर किसी घेरे में
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