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तो बुद्ध ने कहा, मैं उसकी बात करता हूं अपने को ही खोज लो। उस खोज के बाद कोई खोज शेष नहीं रह जाती।
महावीर या बुद्ध या कृष्ण अमैथुन, नो-सेक्सुअलिटी को उपलब्ध नहीं होते। उनकी चेष्टा स्त्री से बचने की, इस शरीर से बचने की नहीं, उनकी चेष्टा आत्मा को फैलाने की विकसित करने की चेष्टा है। जितनी आत्मा फैलती है, आत्म-ऐक्य होता है, उतना ही काम, उतना ही सेक्स, उतनी ही भोग की कामना क्षीण और विलीन हो जाती है। पर, दूसरा, दि अदर जब मौजूद नहीं रह जाता, जब मैं ही विस्तीर्ण हो जाता हूं और फैल जाता हूं, तब कैसी वासना ! तब कैसी कामना ! तब प्रेम ही शेष रह जाता है, वासना नहीं शेष रह जाती। यह बड़े आश्चर्य की बात है, वासना के लिए पोलैरिटी चाहिए, ध्रुवता चाहिए। वासना के लिए दो चाहिए। दो न हों तो वासना संभव नहीं है । जितनी दूरी हो, वासना उतनी तीव्र होती है।
एक स्त्री और पुरुष को न मिलने दें। बीच में एक दीवार खड़ी कर दें । संतरी, पहरेदार लगा दें। फिर उनकी वासना जितनी तीव्र होगी उसकी आप कल्पना नहीं कर सकते। यह दुनिया में जितनी सेक्सुअलिटी दिखाई पड़ रही है, इसीलिए कि स्त्री और पुरुष के बीच दीवार, बंदूक खड़ी है। बंदूक की वजह से दूरी, डिस्टेंस ज्यादा है। डिस्टेंस ज्यादा है तो खिंचाव ज्यादा है, खिंचाव ज्यादा है तो कामुकता ज्यादा है। एक आदमी अपनी प्रेयसी से जितना खिंचता है उतना अपनी पत्नी से नहीं खिंचता । पत्नी और उसके बीच कोई दीवार नहीं है, कोई फासला नहीं, कोई संतरी नहीं खड़ा, कोई पिता नहीं खड़े, कोई भाई नहीं खड़ा, कोई समाज नहीं खड़ा, कोई धर्मगुरु नहीं खड़े। छोड़ दिया समाज ने उनको, लाइसेंस दिया कि अब तुम एक हो जाओ, हम छोड़ते हैं तुमको। अब मजा गया, अब आकर्षण गया । पत्नी बेरस मालूम होती है, पति बेहूदा मालूम होता है, सब बोरडम मालूम होती है। कुछ मतलब नहीं। दूसरी स्त्री निकलती है सड़क से, आंखें चौंकती हैं, तेज हो जाती हैं। अपनी पत्नी को देख कर फीकी हो जाती हैं, ठंडी हो जाती हैं। वहां कुछ रस नहीं मालूम होता । पोलैरिटी टूट गई, फासला टूट गया।
वासना के लिए दूरी चाहिए, और प्रेम के लिए एकता चाहिए। प्रेम वहां होता है जहां दूरी मिट जाती है। वासना वहां होती है जहां दूरी तीव्र होती है, बड़ी होती है। तो वासना और प्रेम के सूत्र अलग हैं। प्रेम ब्रह्मचर्य पर ले जाता है, प्रेम आत्म- - ऐक्य पर ले जाता है । तो महावीर का ब्रह्मचर्य अमैथुन नहीं है, महावीर का ब्रह्मचर्य ब्रह्म-भाव है।
लेकिन पीछे की व्याख्या कहती है कि महावीर का ब्रह्मचर्य अमैथुन है। तो साधुसंन्यासी स्त्री को छोड़ते, आंख बंद करके बैठते, कि स्त्री न दिखाई पड़ जाए, स्त्री न छू जाए, उसका वस्त्र न छू जाए। स्त्री साध्वियां छोड़ती हैं पुरुषों को देखना, दर्शन, छूना, स्पर्श । स्त्रीपुरुष को छोड़ने से मजा यह है कि जितना स्त्री-पुरुष को छोड़िए उतनी दूरी बढ़ेगी, जितनी दूरी बढ़ेगी उतनी सेक्सुअलिटी बढ़ेगी। इसलिए साधु-संन्यासियों में जितनी सेक्सुअलिटी है, उतनी जमीन में किसी आदमी में नहीं होती। नहीं हो सकती है, होने का कारण टूट गया।
मैं एक साध्वी से मिल रहा था । समुद्र की हवाएं चलती थीं, समुद्र के किनारे हम बैठे थे। मेरे चादर को समुद्र की हवा उड़ा कर ले गई और साध्वी को छू गया। अब समुद्र की हवाओं को क्या पता कि एक स्त्री बैठी है, एक पुरुष बैठा है। समुद्र की हवाएं बड़ी निर्दोष,
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