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के लिए हम चले थे, और सामग्री के आयोजन में ही जीवन व्यय हो जाए, इसे आत्महत्या कहना चाहिए। शरीर की हत्या को आत्महत्या नहीं कहना चाहिए।
यह आत्महत्या प्रत्येक के भीतर घटित होती है। इससे बचने का, इससे ऊपर उठने का एक ही उपाय है कि हमारा जो चित्त, हमारा जो मन दूसरे में अति व्यस्त है, थोड़ा सा समय निकाल कर स्वयं को जानने के प्रति भी उन्मुख हो। जिस ज्ञान की शक्ति से हम सारे जगत को जानने निकल पड़े थे, वह ज्ञान की धारा अंतः-प्रवाहित हो, भीतर की तरफ उन्मुख हो। हम उसको भी जान सकें, जो सबको जान रहा है।
और जिन्होंने उसे जाना है, उनका आश्वासन है कि जिस आनंद को बाहर खोज-खोज कर जन्मों-जन्मों में नहीं पाया जा सकता है, क्षण में उसे भीतर मुड़ते ही उपलब्ध कर लिया जाता है। यह आश्वासन एकाध व्यक्ति का हो, तो पागल कह कर टाल सकते हैं, बकवास कह कर टाल सकते हैं। जितने लोगों ने इस जमीन पर, जमीन के इतिहास में आनंद को उपलब्ध किया है, उनमें से एक ने भी उसे बाहर उपलब्ध नहीं किया है। जितने लोगों ने उपलब्ध किया है, उनकी सामूहिक साक्षी और गवाही आंतरिक के लिए है। इसलिए सत्य वैज्ञानिक हो जाता है, यह सत्य अंधविश्वास नहीं रह जाता है। यह अपवाद नहीं है, निरपवाद रूप से जिन लोगों ने आनंद अनुभव किया है, उन्होंने आत्यंतिक आंतरिक से उसका उदघाटन किया है।
वह आंतरिक प्रत्येक में उपस्थित है, प्रत्येक घड़ी उपस्थित है, हम उसे जानते हों या न जानते हों। क्योंकि वह हमारा होना है, वह हमारी बीइंग है, वह हमारी सत्ता है, वह हमारा अस्तित्व है। हम लाख उपाय करके उसको खो नहीं सकते हैं। कोई मनुष्य अपनी आत्मा को नहीं खो सकता, कितना ही पाप करे, कितने ही पाप का उपाय करे। इस जगत में एक बात असंभव है- स्वयं को खो देना असंभव है।
स्वयं को तो खो नहीं सकते, लेकिन फिर सारे लोग तो कहते हैं, आत्मा को पा लो! जिस स्वयं को खो नहीं सकते, उसे पाने का क्या मानी होगा? आत्मा को खोया नहीं जाता, केवल विस्मरण हो जाता है। और ठीक से मेरी बात समझें तो विस्मरण भी नहीं होता, हम दूसरे के स्मरण से इतने भर जाते हैं कि स्व का स्मरण नीचे दब जाता है।
अगर हम पर के स्मरण को थोड़ी देर को छोड़ सकें, अगर हमारा चित्त पर के स्मरण से थोड़ी देर को शून्य हो जाए, अगर हमारे चित्त में पर का प्रतिबिंब और पर के विचार और पर के इमेजेज थोड़ी देर को विलीन हो जाएं, तो स्व-स्मरण जो नीचे दबा है, उदघाटित हो जाएगा। कुछ
खोया नहीं है, केवल कुछ आच्छादित है। कुछ भूला नहीं है, केवल कुछ आवरण में, वस्त्रों में छिप गया है। थोड़े से वस्त्र उघाड़ने की, थोड़ा सा आंतरिक जगत में नग्न होने की बात है-और स्व का साक्षात हो सकता है।
स्व के साक्षात के बाद ही सार्थक की अनुभूति होती है। स्व के साक्षात के बाद ही निरर्थक छूटता है और सार्थक की दिशा में जीवन की गति होती है। उसके पूर्व, स्व-साक्षात के पूर्व, जो सार्थक की तलाश करेगा, वह केवल दमन कर सकता है, वह केवल संघर्ष कर सकता है अपने से, वह केवल छोड़ने में लग सकता है। उससे छूटेगा नहीं, क्योंकि उसे ज्ञात ही नहीं है कि छोड़ने का प्रश्न ही नहीं है।
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