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एक साधु हुआ। वह गृही था। उसका नियम था लकड़ी काट लेनी, बेच देनी; उससे जो भोजन मिले, कर लेना; और जो सांझ बच जाए, उसे बांट देना। उसकी पत्नी थी। एक बार सात दिन तक लगातार वर्षा हुई। लकड़ियां काटने जाना जरूरी था। सात दिन उपवास के बिताने पर भी भिक्षा मांगने का उसका नियम न था। सात दिन के बाद भूखा सपत्नीक लकड़ियां काटने वन को गया। लकड़ियां काटीं। भूख से पीड़ित सात दिन के, लकड़ियों के बोझ को ढोते हुए वे पति-पत्नी वापस लौटते थे। पति आगे था, पत्नी थोड़ा पीछे फासले पर थी। एक अदभुत घटना घटी, जो स्मरण करने जैसी है। वह यदि मन में बैठ जाए, मन के किसी प्रकाशित कोने में स्थापित हो जाए, तो जीवन में दिशा-परिवर्तन हो सकता है।
वह आगे-आगे था लकड़ियों के बोझ को लिए। राह के किनारे उसे दिखा कि किसी राहगीर की थैली गिर गई है, स्वर्ण अशर्फियां उसमें हैं। यह सोच कर कि सात दिन की भूख
और परेशानी के कारण पत्नी का मन कहीं मोह से न भर जाए, कहीं लोभ से न भर जाए, कहीं उसके मन में ऐसा न हो कि अशर्फियां उठा लूं, नाहक उसके चित्त में विकार न आए, उसने गड्ढे में उसे सरका कर थैली पर मिट्टी डाल दी। अपने तईं सोचा कि मैं तो स्वर्ण का विजेता हो गया हूं, मैंने तो जीत लिया, मैं तो स्वर्ण के मोह को छोड़ सकता हूं, लेकिन पत्नी कहीं मोहग्रस्त न हो जाए। वह मिट्टी डाल कर उठता ही था कि पत्नी आ गई।
उसने पूछा, क्या कर रहे हो? नियम था उस साधु का असत्य न बोलने का, इसलिए सत्य बोलना पड़ा। उसने कहा, यह सोच कर कि मैंने तो परिग्रह से छुट्टी पा ली, मैं तो सब त्याग कर चुका हूं, लेकिन तेरे मन में कहीं मोह न आ जाए, एक स्वर्ण अशर्फियों की थैली पड़ी थी, उसे मैंने मिट्टी से ढंक दिया है।
__उस पत्नी ने कहा था, तुम्हें मिट्टी पर मिट्टी डालते हुए शर्म नहीं आई? तुम्हें स्वर्ण अभी दिखाई पड़ता है?
अगर स्वर्ण दिखाई पड़ता है, तो स्वर्ण से त्याग नहीं हुआ। अगर स्वर्ण दिखाई पड़ता है, तो स्वर्ण से मुक्ति नहीं हुई। अगर स्वर्ण मूल्यवान मालूम होता है, तो स्वर्ण के साथ आसक्ति शेष है। स्वर्ण के साथ दो तरह के संबंध हो सकते हैं—आसक्ति के और विरक्ति के। लेकिन दोनों ही संबंध हैं। स्वर्ण के साथ दो तरह के संबंध हो सकते हैं कि मैं स्वर्ण को पाने को उत्सुक हो जाऊं या मैं स्वर्ण को छोड़ने को उत्सुक हो जाऊं। लेकिन दोनों ही संबंध हैं।
वस्तुतः जो स्वयं को जानेगा, वह स्वर्ण को न छोड़ता है, न पकड़ता है। वह अचानक जान पाता है कि वहां तो कोई अर्थ ही नहीं है। स्वर्ण में कोई अर्थ ही नहीं है। इतना भी अर्थ नहीं है कि उसे छोड़ने के लिए उत्सुक हुआ जाए या उसे पकड़ने के लिए उत्सुक हुआ जाए। इस स्थिति को हमने वीतरागता कहा है।
एक स्थिति है राग की-राग स्वर्ण के प्रति आसक्ति है। एक स्थिति है वैराग्य की-वैराग्य स्वर्ण के प्रति विरक्ति है।
लेकिन वे दोनों संबंध हैं। उन दोनों में स्वर्ण का मीनिंग है, स्वर्ण का अर्थ है। एक तीसरी बात है, वीतरागता की। राग से और विराग से, दोनों से अलग। वहां स्वर्ण के प्रति कोई संबंध नहीं है। वहां जगत के प्रति, संसार के प्रति कोई संबंध नहीं है।
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