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अणु संभव है घातक हो जाए। आत्मा का उपलब्ध होना शायद जगत के बचाने का मार्ग बन जाए। इस जगत में, जो अत्यंत पीड़ा और परेशानी से घिरा है, पुनः आत्म-जागरण के उदघोष की जरूरत है।
लेकिन आत्मा के संबंध में हम बहुत बातें जानते हों भला, आत्मा को नहीं जानते हैं। आत्मा के संबंध में बहुत से सिद्धांत मंडित हों, लेकिन आत्मा से कोई परिचय नहीं है। बहुतबहुत आश्चर्य हैं जगत में, लेकिन सबसे बड़ा एक ही है जो मैं हूं, उसे छोड़ कर मैं सब जान सकता हूं! स्वयं से अपरिचित रह जाता हूं! सारे जगत को जाना जा सकता है और केवल वही, जो जानता है, वही रह जाता है! सारे जगत में दौड़ कर ज्ञान के संग्रह का आभास हो सकता है, लेकिन यह संग्रह अज्ञान ही है, क्योंकि वह स्व को उदघाटित नहीं कर पाता।
___महावीर ने कहा है, सब कुछ जान लो, लेकिन जो स्वयं को न जान ले तो वह जानना जानना नहीं है। सब कुछ जीत लो, लेकिन अगर स्वयं को न जीता, तो वह जीत विजय नहीं है। सब कुछ पा लो, लेकिन स्वयं को न पाया तो वह पाना उपलब्धि नहीं है।
स्वरूप पाने से हम च्युत रह जाते हैं, और सब पा लेते हैं!
लगभग ऐसा मुझे स्मरण आता है, स्वामी रामतीर्थ, एक भारतीय साधु जापान में थे। एक भवन के पास से निकलते थे, भवन में आग लग गई थी। लोग सामान निकाल रहे थे। भवनपति बाहर खड़ा था। होश खो दिया था उसने। उसे कुछ दिख नहीं रहा था, लेकिन देख तो जरूर रहा था। लपटें पकड़ रही थीं मकान को। लोग सामान बाहर ला रहे थे। और थोड़ी देर में सब भूमिसात हो जाएगा, सब राख हो जाएगा। रामतीर्थ भी उस राह से निकले थे, किनारे खड़े होकर देखने लगे थे। लोगों ने अंतिम बार आकर पूछा, भवन में कुछ और तो नहीं रह गया? उस भवनपति ने कहा. मझेकछ याद नहीं पड़ता। मझे कछ भी स्मरण नहीं आता। मैं दिग्मढ सा खड़ा रह गया है। तम्हीं एक बार जाकर और देख लो। जो बचा हो. उसे भी बचा लो।।
भवन
वन अंतिम लपटों को पकड़ने के करीब था। लोग भीतर गए। वे बाहर आए तो रोते हए बाहर आए। कहीं एकांत में भवनपति का एकमात्र लड़का था. वे उसकी राख को लेकर लौटे थे। वे लोग मकान का सामान बचाने में लग गए थे और मकान का एकमात्र मालिक भीतर जल कर समाप्त हो गया था! रामतीर्थ ने अपनी डायरी में लिखा है, उस दिन मुझे लगा कि यह घटना प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में घटती है। हम सामान को बचाने में लग जाते हैं. सामान का मालिक धीरे-धीरे मर जाता है।
__हम उसको बचाने में लग जाते हैं जो बाहर है और जो आंतरिक है, जो मैं स्वयं हूं, उसको भूल ही जाते हैं। यह अति व्यस्तता आत्मघातक है, स्युसाइडल है। पदार्थ से, वस्तु से इतना व्यस्त होना कि स्वरूप भूल जाए, सामान्य सामग्री में इतना आक्युपाइड हो जाना, इतना व्यस्त हो जाना कि स्व की सत्ता का विस्मरण हो जाए, आत्मघातक है।
शायद जिसे हम आत्महत्या कहते हैं, वह केवल देह-हत्या है। आत्महत्या इसे कहना चाहिए-आत्महत्या इसे कहना चाहिए कि जिसे स्व का विस्मरण हो जाए और जिसका सामग्री पर सारा जीवन केंद्रित हो जाए। जिसके लिए हम खोज कर रहे हैं, वह गौण हो जाए; और जिसके लिए वे चीजें खोज करने गए थे, वे चीजें प्रमुख हो जाएं। उसे भूल जाएं, जिसकी शांति
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