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ज्यों था त्यों ठहराया
और क्या करना है तुमको चश्मे का आधी रात! कोई खाते-बही करनी है! कोई कुरान शरीफ पढ़नी है? मुल्ला ने कहा, तू देर मत कर। बकवास मत कर। जल्दी चश्मा ले आ। अरे, एक बड़ा सुंदर सपना देख रहा था! मगर धुंधला-धुंधला था। सो मैंने सोचा, चश्मा चढ़ा लूं! मगर सपने चश्मे चढ़ा कर नहीं देखे जाते। और चश्मा भी चढ़ा लो, तो भी धुंधलापन अगर है सपने में, तो मिट नहीं जाएगा। सपना तक नहीं देखा जा सकता चश्मे से! आंखें भी बाहर, चश्मा भी बाहर। आंख को कहते हैं चश्म, और उस पर चढ़े हुए को कहते हैं चश्मा। दोनों बाहर। भीतर जब कोई बिलकुल हार जाता है, ढूंढ-ढूंढ के हार जाता है, थक जाता है, सर्वहार हो जाता है, तब आंख बंद होती है। कुछ है जो आंख बंद कर के दिखाई पड़ता है। लेकिन जब तक तृष्णा है, तब तक आंख बंद नहीं होती, खुल-खुल आती है। यह भी इच्छा बनी रहे कि देखना है सत्य को, परमात्मा को--यह भी महत्वाकांक्षा बनी रहे, तो पर्याप्त है भटकाने के लिए। तू कहती है, हर ओर सुनाती अपना स्वर, मैं ढूंढूं तुमको किधर-किधर। पाया न देख बैठी थक कर।...यह अच्छा हुआ कि नहीं देख पाई और थक गई। पाया न देख बैठी थक कर। तुम गए जीत मैं गई हार। बस, यहीं से शिष्यत्व शुरू होता है। वीणा! यहीं से असली यात्रा का प्रारंभ है, जब शिष्य थक जाता, हार जाता, और कह देता है कि लो, तुम सम्हालो। यह रही मेरी डोर। यह रही पतवार अब तुम्ही माझी। मैं तो थका। मैं तो हारा। मैं तो बैठ रहा। अब पार लगाओ तो ठीक। डुबाओ तो ठीक। और यह रास्ता ऐसा अनूठा है कि यहां जो डूबते हैं, वही उबर पाते हैं। यह मयकदा है, यहां रिंद हैं। यहां सबका साकी इमाम है। यह मयकदा है। पीने वाला तो जब डूब जाता है, बिलकुल डूब जाता है, मदमस्त हो जाता है; भूल ही जाता है कि मैं कौन हूं; याद ही नहीं रहती कि मैं कौन हूं--तभी यह अपूर्व घटना घटती है। मुझको तो होश नहीं तुमको शायद खबर हो लोग कहते हैं कि तुमने मुझे बरबाद किया! यहां होश वाले चूक जाएंगे। यहां समझदार चूक जाएंगे। यह रास्ता दीवानों का है। यह रास्ता परवानों का है। यहां मिटने वाले पा जाते हैं। यहां डूबने वाले उबर जाते हैं। कोई समझाए यह क्या रंग है मैखाने का आंख साकी की उठे नाम हो पैमाने का गर्मि ए शम्मा का अफसाना सुनाने वालो रस्क देखा नहीं तुमने अभी परवाने का किसको मालूम थी पहले से खिरद की कीमत आलमे होस पे अहसान है दीवाने का चश्मे साकी मुझे हर गाम पै याद आती है
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