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________________ ज्यों था त्यों ठहराया तुमने एक मजे की बात देखी कि डाक्टर दिन भर लगा रहता है मरीजों की दुनिया में और नहीं मरता। बीमारी--और बीमारी के बीच पड़ा रहता है और इसको बीमारी नहीं पकड़ती। और तुमको जरा में बीमारी पकड़ जाती है! छूत की बीमारी! एकदम तुम्हें छू जाती है। और डाक्टर दिन भर न मालूम किस-किस तरह के मरीजों का पेट दबा रहा है। हाथ देख रहा है। नब्ज पकड़ रहा है। इंजेक्शन लगा रहा है। और बीमारी नहीं पकड़ती! और तुम्हें बीमारी पकड़ जाती है। तुम्हारा भाव, बस तुम्हें पकड़ा देता है। यह देख कर भी तुम्हें खयाल में आता होगा कि डाक्टरों में तुम एक तरह की सख्ती पाओगे। तुम लाख रोओ-धोओ; तुम्हारी पत्नी बीमार पड़ी है, तुम लाख रोओ-धोओ और तुम्हें लगेगा कि डाक्टर बिलकुल उदासीन है। उसको उदासीन होना पड़ता है, नहीं तो वह कभी का मर चुके। उसको उदासीनता रखनी पड़ती है, सीखनी पड़ती है। वह उसके व्यवसाय का अंग है, अनिवार्य अंग है। उसको एक उदासीनता की पर्त ओढ़नी पड़ती है। अब यहां तो रोज ही कोई मर रहा है। कोई तुम्हारी अकेली पत्नी मर रही है! रोज कोई मरता है। न मालूम कितने बीमार आते हैं! यहां अगर एक की बीमारी से वह आंदोलित होने लगे, तो वह खुद ही मर जाए। कभी का मर जाए! तो वह धीरे-धीरे कठोर हो जाता है। सख्त हो जाता है। उसके चारों तरफ एक पर्त गहरी हो जाती है, जिस पर्त को पार कर के कीटाणु भी प्रवेश नहीं कर सकते। डाक्टर तुम्हें कठोर मालूम होगा। नर्से तुम्हें कठोर मालूम होंगी। और तुम्हें लगता है कि यह बात तो ठीक नहीं! डाक्टर को तो दयावान होना चाहिए। नौ को तो दयावान होना चाहिए। होना तो चाहिए, मगर वे बचेंगे नहीं। उनके बचने का एक ही उपाय है कि वे थोड़ी-सी कठोरता रखें। वे अप्रभावित रहें। कौन मरा, कौन जीया...यूं समझें कि जैसे फिल्म में कहानी देख रहे हैं। कुछ लेना-देना नहीं। साक्षीभाव रखें, तो ही जिंदा रह सकते हैं। नहीं तो जिंदा रहना असंभव है। उनको भी जीना है, और उनके जीने के लिए यह अनिवार्य है कि वे एक कठोरता का कवच ओढ़ लें। यह सूत्र अर्थपूर्ण है इस दृष्टि से कि इसी सूत्र के कारण सारे धर्म गलत हो गए हैं। मेरा यहां प्रयास यही है कि तुम्हें इस सूत्र से ऊपर उठाऊं। मेरी घोषणा समझो। मैं कह रहा हूं कि तुम्हारा स्वभाव पर्याप्त है। तुम्हें कुछ और होना नहीं है। इसलिए यत्न क्या करना है! भावना क्या करनी है! तुम हो। तुम्हें जो होना चाहिए वह तुम हो ही। तुम्हें अपने भीतर जाग कर देखना है कि मैं कौन हूं। कुछ होना नहीं है। जो हो, उसको ही पहचानना है। आत्म-परिचय करना है। आत्मज्ञान करना है। आत्मज्ञान के लिए भावना की जरूरत नहीं, विचारणा की जरूरत नहीं; यत्न की जरूरत नहीं। आत्मज्ञान के लिए निर्विचार होना है। प्रयत्न-शून्य होना है। दौड़ना नहीं, बैठना है। भागना नहीं ठहरना है। न शरीर में कोई क्रिया रह जाए, न मन में कोई क्रिया रह जाए। दोनों निष्क्रिय हो जाएं। बस, ध्यान का सरगम बज उठेगा। Page 183 of 255 http://www.oshoworld.com
SR No.009965
Book TitleJyo tha Tyo Thaharaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherOsho Rajnish
Publication Year
Total Pages255
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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