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ज्यों था त्यों ठहराया
उदाहरण देख। मेरा बेटा तो बच गया; खैर कोई बात नहीं। मगर उसकी टोपी कहां गई? हो गया न सत्यानाश! मारवाड़ी सबके भीतर छिपा है लेकिन। मारवाड़ में ही नहीं रहता; हर मन में रहता है। मन ही मारवाड़ है। मन बड़ा कृपण है, कुछ छोड़ता ही नहीं। कूड़ा-करकट भी इकट्ठा करता है-- धन दौलत ही नहीं। जो पकड़ लेता है, उसी को इकट्ठा करता चला जाता है। मन इकट्ठा करने में मानता है--बांटने से डरता है। और आत्मा उन्हें उपलब्ध होती है, जो बांटना जानते
जो है उसे बांटो। मारवाड़ी को आत्मा नहीं मिल सकती। जो है, उसे बांटो। साझीदार बनाओ औरों को। प्रेम है, तो प्रेम। आनंद है, तो आनंद। ज्ञान है, तो ज्ञान। ज्योति है, तो ज्योति। ध्यान है, तो ध्यान। जो है, उसे बांटो। बेशर्त बांटो। और जितना बांटोगे, उतना ही परमात्मा तुम पर बरसेगा। तुम जितना बांटते चलोगे, उतना बढ़ता जाता है भीतर का धन। भीतर के धन का अर्थशास्त्र अलग अर्थशास्त्र है। बाहर का धन बांटने से घटता है। बाहर का धन मारवाड़ी के अर्थशास्त्र का हिस्सा है। भीतर का धन बांटने से बढ़ता है, रोकने से घटता है। आज इतना ही। पांचवां प्रवचन; दिनांक १५ सितंबर, १९८०; श्री रजनीश आश्रम, पूना
गुरु कुम्हार, शिष्य कुंभ है
पहला प्रश्नः भगवान, मैं ध्यान क्यों करूं? दिवाकर भारती! जीवन में कुछ चीजें हैं, जो साधन नहीं--साध्य हैं। और बहुत चीजें हैं, जो साधन हैं--साध्य नहीं। पूछा जा सकता है कि मैं धन क्यों अर्जित करूं। नहीं पूछा जा सकता कि मैं ध्यान क्यों करूं। क्योंकि धन साधन है--क्यों का उत्तर हो सकता है। धन की कोई उपयोगिता है; ध्यान की कोई उपयोगिता नहीं है। ध्यान अपने आप में साध्य है--जैसे प्रेम। कोई पूछे कि मैं प्रेम क्यों करूं! क्या उत्तर होगा? प्रेम! क्यों का प्रश्न ही नहीं; हेतु की बात ही नहीं; अंतरभाव है। जैसे फूल में सुगंध है; क्यों की कोई बात नहीं। ऐसे हृदय का फूल खिलता है, तो प्रेम की सुगंध उठती है। नहीं पूछा जा सकता कि जीवन क्यों... सरल होगा सोचना यूं: जब दुख होता है, तो तुम पूछ सकते हो क्यों; क्या कारण है? लेकिन जब आनंद होता है, तो न तुम पूछते हो, न तुम पूछ सकते हो कि आनंद क्यों? कारण क्या? जब तुम बीमार होते हो, जरूर चिकित्सक के पास जाते हो। पूछते हो,
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