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3. ब्रह्मचर्य के लाभ और अब्रह्मचर्य की हानियां 1.0 ब्रह्मचर्य के लाभ
किसी भी करणीय या अकरणीय कार्य के गुण-दोष को स्पष्ट करने से अनुयायियों में उसके प्रति जागृति बढ़ जाती है। जैन आगमों एवं व्याख्या साहित्य में ब्रह्मचर्य की महिमा के प्रतिपादन के साथ-साथ उससे होने वाले अनेक लाभ का भी विस्तृत वर्णन मिलता है। ब्रह्मचर्य के लाभ को विभिन्न वर्गों में विभाजित कर इस प्रकार स्पष्ट किया जा सकता है1.1 व्यावहारिक लाभ
प्रत्येक साधना पद्धति के लोकप्रिय होने में उसका व्यावहारिक रूप से लाभदायक होना बहुत जरूरी है। जैन आगमों में वर्णित ब्रह्मचर्य का सिद्धान्त अनेक दृष्टियों से व्यावहारिक लाभ देने वाला है जैसे1.1(1) मंगलकारी - जो शुभ हो अर्थात् जिससे हित सधता हो उसे मंगल कहते हैं। मंगल के दो प्रकार होते हैं(i) द्रव्य मंगल - औपचारिक या लौकिक मंगल। पूर्ण कलश, स्वस्तिक, अक्षत, रोली, मौली, नारीयल आदि अनेक वस्तुएं लौकिक मंगल मानी जाती हैं। (ii) भाव मंगल - वास्तविक मंगल। जिससे आत्म हित की सिद्धि होती है अर्थात् आत्म शुद्धि एवं उत्कर्ष होता है वह भाव मंगल कहलाता है।
ठाणं सूत्र में काम भोगों की परिज्ञा अर्थात् उन्हें अच्छी तरह जानना और जानकर त्यागना, जीवों के लिए हितकर, शुभ, क्षम, नि:श्रेयस तथा अनुगामिकता आदि का हेतु कहा गया है। अर्थात् काम-भोगों का समझपूर्वक त्याग मंगलकारी माना गया है।'
प्रश्नव्याकरण सूत्र में ब्रह्मचर्य को सभी मंगलों का मार्ग - उपाय बताकर इसे लौकिक एवं लोकोत्तर दोनों ही मंगलों का जनक कहा गया है।
दसवैकालिक सूत्र में धर्म को उत्कृष्ट मंगल माना गया है। यहाँ धर्म के तीन लक्षण बताए गए हैं- अहिंसा, संयम और तप। धर्म के इन तीनों लक्षणों में ब्रह्मचर्य प्राण तत्व की तरह समाहित है।
(i) अहिंसा में - यहाँ अहिंसा शब्द व्यापक अर्थ में व्यवहत है। इसलिए मृषावाद विरति, मैथुन विरति, परिग्रह विरति भी इसमें समाविष्ट हैं।'
(ii) संयम में - यहाँ संयम शब्द का प्रयोग भी बहुत व्यापक अर्थ में किया गया है। हिंसा, असत्य, चौर्य, मैथुन और परिग्रह का त्याग, कषायों पर विजय, इन्द्रियों का निग्रह, समितियों और गुप्तियों का पालन - ये सब संयम शब्द में अन्तर्निहित हैं।
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