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(iii) तप में - बारह प्रकार के तप में छठा है - प्रतिसंलीनता। इसका अर्थ है इन्द्रियों के विषय शब्द आदि विषयों में राग-द्वेष न करना, अनुदीर्ण क्रोध आदि का निरोध तथा उदय में आए क्रोध को विफल करना, अकुशल मन आदि का निरोध और कुशल मन आदि की प्रवृत्ति तथा स्त्री-पशु-नपुंसक रहित एकांत स्थान में वास।
इस प्रकार धर्म के लक्षणों के अंश के रूप में ब्रह्मचर्य उत्कृष्ट मंगल की कोटि में आता
1.1(2) विश्वास पात्रता - जो व्यक्ति ब्रह्मचर्य में दृढ़ रहता है वह लोक में विश्वास का पात्र बन जाता है। सूत्रकृतांग सूत्र एवं ज्ञाताधर्मकथा में अनेक श्रावकों के प्रसंग में कहा गया है कि वे राजाओं के अन्त:पुर एवं दूसरों के घरों में बिना किसी रुकावट के प्रवेश करने वाले थे। ब्रह्मचर्य के विश्वास के कारण उन्हें कहीं भी जाने में रुकावट नहीं थी।
प्रश्नव्याकरण सूत्र में भी ब्रह्मचर्य का प्रतिपादन करते हुए इसे नि:शंक कहा गया है। अर्थात् ब्रह्मचारी पुरुष विषयों के प्रति निष्पृह होने से लोगों के लिए शंकनीय नहीं होता।" 1.1(3) मैत्री का विकास - प्रश्नव्याकरण सूत्र में ब्रह्मचर्य को वैर भाव की निवृत्ति और उसका अन्त करने वाला कहा गया है। इसकी व्याख्या में मुनि श्री कन्हैयालालजी ने एक सुंदर श्लोक उद्धृत किया है
सप्पो हारायए तस्स, विसं चावि सुहायए।
बंभचेरप्पभावेण, रिऊ मित्तायए सया।। सर्प उसके लिए हार जैसा बन जाता है और विष भी सुधा जैसा हो जाता है। यह ब्रह्मचर्य का ही प्रभाव है कि शत्रु भी मित्र बन जाता है। 1.1(4) सम्मान - ज्ञाताधर्मकथा सूत्र में भोगासक्ति से मुक्त व्यक्ति को बहुत से श्रमणों, श्रमणियों, श्रावकों और श्राविकाओं द्वारा अर्चनीय कहा गया है।"
उत्तराध्ययन सूत्र में ब्रह्मचारी को देव, दानव, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस, किन्नर आदि के द्वारा सम्माननीय बताया गया है।
हेमचंद्राचार्य ने योगसूत्र में कहा है कि ब्रह्मचर्य का परिपालक पूज्यों का भी पूज्य बन जाता है। वह न केवल सामान्य व्यक्ति बल्कि सुरों, असुरों एवं नरेंद्रों का पूजनीय-सम्माननीय बन जाता है। 13
ज्ञानार्णव में भी ब्रह्मचर्य के पालक को तीनों लोकों में पूजनीय बताया गया है।" 1.1(5) शारीरिक स्वास्थ्य - शारीरिक स्वास्थ्य मानसिक एवं भावात्मक स्वास्थ्य का आधार होता है। आयुर्वेद आदि स्वास्थ्य ग्रंथों के अनुसार स्वस्थ शरीर का आधार वीर्य रक्षा है।
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