________________
काम भोग जैसी बड़ी समस्या को समग्रता से समझाने के लिए अनेक उपमाओं का प्रचुरता से उपयोग किया गया है। इन उपमाओं के उपयोग का उद्देश्य यह भी लगता है कि सामान्य प्रज्ञा के शिष्य किसी एक उपमा से विषय वस्तु को न समझ सके तो अन्य के द्वारा समझ लें।
जैन परम्परा में अब्रह्मचर्य को मात्र मैथुन क्रिया तक ही सीमित न रखकर विस्तृत रूप से लिया गया है। पांचों इंद्रियों और मन का असंयम, इनके विषयों में राग-द्वेष या आसक्ति ही अब्रह्मचर्य है क्योंकि इनसे व्यक्ति बहीरात्म भाव हो जाता है। अब्रह्मचर्य के भेद प्रभेदों को अनेक दृष्टिकोणों से अनेक रूपों में प्रतिपादित किया गया है।
-
इसमें विशेष बात यह है कि देवताओं के काम भोग पर भी विचार किया गया है। यहां काम-वासना की समस्या के मूल कारणों के अंतर्गत आंतरिक एवं बाह्य कारणों पर चिंतन किया गया है।
प्रस्तुत अध्याय में अब्रह्मचर्य का विस्तृत निरूपण का उद्देश्य इसके प्रति विरक्ति उत्पन्न करना है। काम-वासना से विरक्ति होने पर ही ब्रह्मचर्य साधना का मार्ग उद्घाटित होता
है।
किसी भी कार्य में प्रवृत्ति या निवृत्ति के लिए उससे होने वाले लाभ एवं हानि का ज्ञान अत्यावश्यक होता है। इसके अभाव में साधक का उसके प्रति आकर्षण उत्पन्न नहीं होता। इसी अपेक्षा से ब्रह्मचर्य एवं अब्रह्मचर्य के विस्तृत अध्ययन के बाद इनसे होने वाले लाभ एवं हानिका अध्ययन आगामी तृतीय अध्याय में काम्य हैं।
72