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जीवाजीवाभिगम सूत्र में इसके स्वभाव का चित्रण करते हुए कहा गया है कि स्त्री वेद फुंक (करिष, छाणे कण्डे की) अग्नि के समान होता है। जैसे कण्डे की अग्नि धीरे-धीरे जागृत होती है और देर तक बनी रहती है उसी प्रकार स्त्री वेद का विकार है। M
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2.
पुरुष वेद पुरुष में कठोर भाव मुख्य है जिसे कोमल तत्त्व की अपेक्षा रहती है। जीवाजीवाभिगम के अनुसार यह वन की अग्नि (घास) के समान है जो शीघ्र ही प्रज्ज्वलित हो जाती है। प्रारंभ में तीव्र दाह वाली होती है किन्तु शीघ्र ही शांत हो जाती है।'
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3.
नपुंसक वेद - नपुंसक वेद में दोनों भावों का मिश्रण होने से दोनों तत्त्वों की अपेक्षा रहती है। जीवाजीवाभिगम के अनुसार नपुंसक वेद की कामाग्नि महानगर में फैली हुई आग की ज्वालाओं के समान होती हैं। कहीं-कहीं इसे ईंट या चूने के भट्टे की अग्नि के समान बताया
जाता है। यह अति तीव्र और चिरकाल तक धधकती रहती है।
3.0
अब्रह्मचर्य कारक तत्त्व
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"कारण के बिना कार्य नहीं होता" अर्थात् प्रत्येक कार्य के पीछे कोई न कोई कारण अवश्य होता है। किसी समस्या के निराकरण के लिए प्रथम अनिवार्यता यह है कि उस समस्या के कारणों को खोजा जाए। समस्या के मूल को उन्मूलित किए बिना मात्र ऊपरी प्रयास करने से स्थाई हल नहीं हो पाता। अब्रह्मचर्य जनित समस्याओं के समाधान के लिए यह खोजना आवश्यक है कि वे कौन से कारण हैं जो व्यक्ति की कामुकता को उद्दीप्त करते हैं।
जैन आगमों में अब्रह्मचर्य की समस्या पर विस्तृत विवेचन के साथ-साथ इसके कारक तत्त्वों को खोजने का भी प्रयास हुआ है। आचारांग के भाष्यकार ने काम वासना की उत्पत्ति के कारणों को मूलतः दो भागों में विभक्त किया हैं -
(1) सनिमित्तिक (2) अनिमित्तिक
(1) सनिमित्तिक - जिस काम वासना का उदय बाह्य निमित्तों के कारण होता है वह सनिमित्तिक कहलाती है।
(2) अनिमित्तिक - जिस काम वासना का उदय आंतरिक कारणों से होता है वह अनिमित्तिक कहलाती है।" जैन आगमों में अनेक स्थलों पर अब्रह्मचर्य के कारणों पर जो प्रकाश डाला गया है। उसे इस प्रकार देखा जा सकता है -
3.1
कुशील की संगत
व्यक्ति के उत्थान और पतन में उसकी संगति की बहुत बड़ी भूमिका होती है। ज्ञाताधर्मकथा की वृत्ति में श्री अभयदेव सूरि ने कुशील व्यक्तियों की संगत को पतन का कारण बताते हुए कहा है
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पुणोवि पइदिणं जह, हायंतो सव्वहा ससी नस्से ।
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