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अर्थ, धर्म और मोक्ष के अंतर्गत विवेचन किया गया है। काम तत्त्व को यहां उपेक्षित नहीं किया गया है। बल्कि इसके उन्मुक्त भाव को मर्यादित किया गया है। इसकी सीमा रेखा को समझने के लिए भी इसके ज्ञान का होना आवश्यक है।
इस प्रकार ब्रह्मचर्य की साधना में अग्रसर होने के लिए जितना ब्रह्मचर्य को समग्रता से जानना आवश्यक है, उतना ही अब्रह्मचर्य को भी समग्रता से जानना आवश्यक है। 2.0 अब्रह्मचर्य का स्वरूप : पर्याय विवेचन
विकसित भाषाओं की यह विशेषता होती है कि वहां एक शब्द के अनेक अर्थ निकलते हैं तथा एक अर्थ के लिए अनेक शब्दों का प्रयोग भी होता है। शब्दों की यह विविधता हमें अर्थ को समग्रता और गहराई से समझने में बहुत सहयोग करती है। इससे स्वरूप स्पष्ट होता चला जाता है। दसवें अंग पण्हावागरणाई (प्रश्न व्याकरण सूत्र) में अब्रह्मचर्य के तीस गुण निष्पन्न अर्थात् सार्थक नामों का उल्लेख किया गया हैं। " 2.1 अब्रह्म (अबभं)
अब्रह्मचर्य शब्द ब्रह्मचर्य का विलोम शब्द है। इसका स्पष्ट अर्थ होता है- ब्रह्मचर्य का अभाव। प्रश्नव्याकरण सूत्र के व्याख्याकारों ने इसका अर्थ अकुशल अनुष्ठान, अशुभ आचरण', अकुशल कार्य तथा दुराचार किया है। तत्त्वार्थ सूत्र एवं जैन सिद्धांत दीपिका में मैथुन को अब्रह्मचर्य कहा है - मैथुनमब्रह्म।
A Sanskrit English Dictionary के रचनाकार ने अब्रह्मचर्य के दो अर्थ किए हैं - ब्रह्मचर्य व्रत का पालन न करना और अपवित्रता।"
धर्मामृत अनगार में शील की विराधना को अब्रह्मचर्य कहा गया है। इसके दस प्रकार इस प्रकार बताए हैं :
स्त्रियों की संगति करना इंद्रियमद कारक स्वादिष्ट भोजन सुगंधित पदार्थों से शरीर का संस्कार करना कोमल शय्या और आसन आदि पर सोना, बैठना अलंकार आदि से शरीर को सजाना गीत-वाद्ययंत्र आदि सुनना अधिक परिग्रह का संग्रह कुशील व्यक्तियों की संगति राजा की सेवा और रात्रि में इधर-उधर घूमना
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