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1.0
अब्रह्मचर्य का अध्ययन क्यों ?
ब्रह्मचर्य अनेक दृष्टियों से उपयोगी होता है उसका अध्ययन तो आवश्यक है, किन्तु इस अध्याय के शीर्षक को पढ़कर ही प्रश्न उत्पन्न होता है कि अब्रह्मचर्य के अध्ययन की क्या अपेक्षा है ? इसके उत्तर में यहां तक कहा जा सकता है कि अब्रह्मचर्य के अध्ययन की आवश्यकता ही नहीं, ब्रह्मचर्य को जानने के लिए अब्रह्मचर्य के अध्ययन की प्रथम अपेक्षा है। इसके कारण ये हो सकते हैं -
1.1
प्रतिपक्षी का अध्ययन
किसी भी विषय के सर्वांगीण अध्ययन के लिए उसके प्रतिपक्षी तथ्यों का अध्ययन भी आवश्यक होता है। अब्रह्मचर्य ब्रह्मचर्य का प्रतिपक्षी है। प्रतिपक्षी को पहले समझने से पक्ष अच्छी तरह से समझ में आता है। इसलिए ब्रह्मचर्य के अध्ययन के साथ अब्रह्मचर्य को जानना आवश्यक है।
2. अब्रह्मचर्य एक विवेचन
सूत्रकृतांग सूत्र में कहा गया है, "बुज्जेज तिउटट्टेज्जा बंधणं परिजाणियां " अर्थात् पहले बंधन को जानो फिर उसे तोड़ो।' इस सूत्र के टिप्पण में आचार्य महाप्रज्ञ आचार शास्त्र की पृष्ठभूमि ज्ञान को मानते हैं - ज्ञानं प्रथमो धर्मः ।'
1.2 समस्या का अध्ययन
भगवती सूत्र के अनुसार ब्रह्मचर्य से पहले अब्रह्मचर्य होता है।' प्रश्न व्याकरण सूत्र आदि प्राचीन ग्रंथों में भी ब्रह्मचर्य के प्रतिपादन से पूर्व अब्रह्मचर्य का विस्तृत वर्णन किया गया है। प्रज्ञापना सूत्र में मनुष्यों में पाई जाने वाली संज्ञाओं और उनके अल्पबहुत्व पर विचार किया गया है। इसके अनुसार चारों संज्ञाओं की अपेक्षा मनुष्य में मैथुन संज्ञा सर्वाधिक होती है, क्योंकि मनुष्यों में प्रायः मैथुन संज्ञा अति प्रभूत काल तक बनी रहती है। वस्तुतः समस्या अब्रह्मचर्य की
है, ब्रह्मचर्य की नहीं, इसलिए अब्रह्मचर्य को भी जानना जरूरी है।
1.3
अब्रह्मचर्य भी ज्ञेय
जैन परम्परा में समस्त पदार्थों को हेय, ज्ञेय और उपादेय इन तीन वर्गों में विभाजित किया गया है । ज्ञेय सभी पदार्थ हैं भले ही वे हेय हो या उपादेय। दसवैकालिक सूत्र में कहा गया
है -
1.4
सोचा जाणई कल्लाणं, सोचा जाणई पावगं । उभयं पि जाणई सोचा, जं छेयं तं समायरे ||
सीमा का बोध
भारतीय परम्परा के साहित्य एकांगी नहीं रहे। इनमें जीवन के सभी अंगों का - काम,
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