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दोनों में वास्तव में कोई भेद नहीं है। धर्म के ज्ञाताओं ने भोग पत्नी का भी वर्जन किया है। जब भोग पत्नी ही निषिद्ध है तो परस्त्री तो निश्चित ही निषिद्ध है।
पर-स्त्री - पर-स्त्री तीन प्रकार की होती हैं -
(1) गृहीता - जिसे किसी ने ग्रहण किया हो वह 'गृहीता' पर-स्त्री है। ये दो तरह की होती हैं - एक वह जिसका पति जीवित है और दूसरी वह जिसका पति तो मर चुका है किन्तु पिता आदि जीवित है। जो चेटिका होती है उसका पति वही है जिसके पास वह रहती है अत: वह भी गृहीता है।
(2) अगृहीता - वह विधवा स्त्री जिसके कुटुम्बी भी मर चुके हैं, जो स्वछन्दचारिणी होती है वह अगृहीता कहलाती है।
कुछ मान्यताओं के अनुसार जिसका स्वामी कोई नहीं होता उसका स्वामी राजा होता है। इस प्रकार वह गृहीता ही है। 114
(3) वेश्या-लाटी संहिता में वेश्या को अगृहीता स्त्री के अन्तर्गत माना गया है। पं. आशाधरजी ने सागार धर्मामृत की टीका में खुला व्यभिचार करने वाली स्त्रियों को वेश्या कहा है।
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हरिभद्र सूरि ने पर स्त्री के दो भेद निर्दिष्ट किए हैं - औदारिक और वैक्रियिक। औदारिक से उन्होंने मनुष्यनी और तिर्यंचनी तथा वैक्रियिक से विद्याधरी आदि को ग्रहण किया
3.2 (2)(i) ब्रह्मचर्य अणुव्रत के अतिचार
उपासकदसाओ सूत्र में ब्रह्मचर्य अणुव्रत के पांच अतिचारों का उल्लेख हैं-118 1. इत्वरिका परिगृहीतागमन 2. अपरिगृहीतागमन 3. अनंग क्रीड़ा 4. पर - विवाहकरण 5. कामभोग तीव्राभिलाषा
तत्त्वार्थ सूत्र, सर्वार्थसिद्धि, योग शास्त्र, चारित्रसार, पुरुषार्थसियुपाय, अमितगति श्रावकाचार और लाटी संहिता में भी इन्हीं अतिचारों का उल्लेख हैं। कहीं - कहीं पर क्रम आगे-पीछे है।
रत्नकरण्ड श्रावकाचार में 'इत्वरिका गमन' नामक एक अतिचार है, दूसरे की पूर्ति विटत्व नाम के अतिचार से की गई है। शेष तीन अतिचार उपरोक्त अतिचारों के समान हैं। पं. आशाधरजी ने रत्नकरण्ड के अनुसार ही पांच अतिचार गिनाए हैं। पं. सोमदेव ने इत्वरिका गमन