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पर विस्तृत प्रकाश डाला गया है। अब्रह्मचर्य को प्रमुख रूप से मैथुन, काम और काम भोग से जाना जाता है। इसके प्रति वैराग्य उत्पन्न करने के लिए अनेक उपमाओं का भी प्रयोग किया गया है। अब्रह्मचर्य या उच्छृंखल काम भोग को उद्दीप्त करने वाले कारक तत्त्वों की व्याख्या करते हुए इस संदर्भ में होने वाले प्रमाद के परिष्कार के लिए प्रायश्चित्त का भी विधान है।
जैन आगमों में साधक को ब्रह्मचर्य की ओर प्रेरित करने तथा अब्रह्मचर्य से दर करने के लिए ब्रह्मचर्य के लाभ एवं अब्रह्मचर्य जन्य हानियों का स्थान-स्थान पर उल्लेख है। उन्हीं सूत्रों को विविध विभागों में विभाजित कर यहां सरलता से प्रस्तुत किया गया हैं मनुष्य के जीवन पर पड़ने वाले इनके प्रभावों को शारीरिक, मानसिक, नैतिक, चारित्रिक, व्यावहारिक, भावात्मक व आध्यात्मिक पक्षों का अध्ययन किया गया हैं।
ब्रह्मचर्य की साधना में लक्ष्य तक पहुंचने से पूर्व अनेक विघ्न बाधाएं आती हैं। मंजिल तक न पहुंच जाएं तब तक उनसे अपनी सुरक्षा भी आवश्यक है। शास्त्रों में इस हेतु अनेक उपाय बताए गए हैं, इन समस्त सुरक्षा उपायों को तीन सुरक्षा कवच / चक्रों में प्रस्तुत किया गया हैं - प्रथम सुरक्षा चक्र में विविक्तशयनासन को रखा गया है इसके अन्तर्गत वासना को उद्दीप्त करने वाले बाह्य वातावरण से रक्षा की बात आई है यह वेश्याओं, कामुक स्त्री-पुरुषों तथा कामुक वातावरण से साधक की रक्षा करता है।
दूसरे सुरक्षा चक्र में पंचेन्द्रिय संयम को रखा गया है। पांचों इन्द्रिय-विषयों में किसी एक का भी असंयम ब्रह्मचर्य के लिए घातक बताया गया है।
तीसरे सुरक्षा चक्र में मन संयम को रखा गया है ब्रह्मचर्य की सुरक्षा के लिए पूर्व भुक्त भोगों की स्मृति, वर्तमान का चिंतन और भविष्य में भोग की कल्पना को नियंत्रित करने को कहा गया है।
इस प्रकार तीन चक्र में साधक अपनी सुरक्षा कर सकता है। असुरक्षित होकर ब्रह्मचर्य को साधने का प्रयास करेगा तो उसकी प्रगति सुनिश्चित नहीं हो सकती उसके मन में ब्रह्मचर्य के प्रति शंकाएं उत्पन्न हो जाएगी। इससे वह अपने पथ से भ्रष्ट हो सकता है। इस प्रकार उच्छृंखल यौन व्यवहार पर नियंत्रण करने व आध्यात्मिक विकास, आत्म रमण हेतु ब्रह्मचर्य के साधन और उपाय दोनों पर ध्यान देना आवश्यक है।
शास्त्रों में ब्रह्मचर्य के विकास के लिए अनेक साधन बताए गए हैं उनके अभ्यास द्वारा अब्रह्मचर्य से ब्रह्मचर्य की दिशा में प्रस्थान हो सकता है। इसमें पहला साधन है - ज्ञान। ब्रह्मचर्य का स्वरूप तथा उससे होने वाले लाभ एवं अब्रह्मचर्य का स्वरूप तथा उससे होनेवाले दुष्परिणामों का बोध ब्रह्मचर्य की दिशा में प्रस्थान का पहला हेतु बनता है। इसके बाद ब्रह्मचर्य के सतत बोध से उसके प्रति आस्था बढती जाती है। आस्था के बाद तीसरा चरण है- संकल्प अब्रह्मचर्य की सीमा करना या पूर्णतः त्याग करना । अब्रह्मचर्य के त्याग के पश्चात् ब्रह्मचर्य में
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