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अध्याय षष्टम 6. उपसंहार
आज एड्स जैसी भयानक समस्या से मानव जाति त्रस्त हो रही है। उसका एक मूल कारण उच्छृखल यौन व्यवहार है। इसके अलावा बलात्कार, यौन-शोषण, अवैधानिक यौन संबंध, गर्भपात, महिलाओं के साथ छेड़-छाड़ जैसी अनेक सामाजिक विकृतियां पूरे विश्व स्तर पर बढ़ रही है। दूरदर्शन, इन्टरनेट, मोबाइल आदि संचार माध्यमों के द्वारा अश्लीलता एवं यौन उच्छृखलता का संप्रेषण तेजी से बढ़ता जा रहा है। किशोरों एवं युवाओं की पथभ्रष्टता एवं उससे उत्पन्न तनाव, अवसाद, हीन भावना एवं कुण्ठाओं से प्रेरित होकर की जाने वाली हत्याएं एवं आत्महत्याएं आदि की घटनाएं प्रायः समाचार पत्रों एवं न्यूज चैनलों में प्रमुखता से स्थान पा रही हैं। दिन-प्रतिदिन उन्मुक्त भोग के प्रति आकर्षण बढ़ता जा रहा है। इससे अनेक असाध्य शारीरिक बीमारियाँ, पारिवारिक उलझनें, सामाजिक अशान्ति एवं सांस्कृतिक मूल्यों का विघटन तेजी से बढ़ रहा है। वस्तुतः यह व्यक्ति के आध्यात्मिक पतन को बढ़ा रहा है। इन सबको देखकर मन में प्रश्न उपस्थित हआ कि इस समस्या का समाधान कैसे हो? इसी यक्ष प्रश्न ने मुझे इस शोध कार्य के सात्विक प्रयास की ओर प्रेरित किया।
केवल ज्ञानी अर्हतों के अनुभवों का सार जैन आगमों में भरा हुआ है। इनमें प्राचीन दर्शन, संस्कृति, इतिहास आदि ज्ञान-विज्ञान का भण्डार तो है ही, मानवीय समस्याओं का समाधान भी प्रचुरता से मिलता है। चूंकि आज की अनेक समस्याओं का जनक अब्रह्मचर्य है। इसके समाधान में जैन आगमों की क्या दृष्टि रही ? भगवान महावीर ने इसका समाधान क्या दिया ? उत्तरवर्ती आचार्यों एवं अन्य साधकों ने प्रस्तुत समस्या के समाधान के संदर्भ में क्या अवदान दिए ? आदि प्रश्नों का समाधान प्रस्तुत शोध कार्य द्वारा खोजने का प्रयास किया गया
शोध से प्राप्त निष्कर्षों को प्रत्येक अध्याय के साथ दिया गया है। उन्हें संक्षेप में यहां प्रस्तुत किया जा रहा है -
जैन आगमों में ब्रह्मचर्य के स्वरूप पर विस्तृत प्रकाश डाला गया है। यहां चारित्र के उन्नयन हेतु शक्ति सापेक्ष साधना का प्रतिपादन है। अर्थात् सम्पूर्ण रूप से आजीवन ब्रह्मव्रत पालने की क्षमता रखने वालों के लिए महाव्रत एवं ऐसी शक्ति के अभाव में अणुव्रत का विधान है।
जैन साहित्य में विशेष बात सामने आई है कि यहां ब्रह्मचर्य पालन हेतु किसी भी प्रकार के अपवाद की छूट नहीं है। ब्रह्मचर्य को एक दुष्कर साधना मानते हुए भी जीवन के किसी भी भाग में इसकी साधना में उत्थित हुआ जा सकता है।
जैन परम्परा में ब्रह्मचर्य के समान ही अब्रह्मचर्य को ज्ञेय माना गया है। इसके स्वरूप
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