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1. ब्रह्मचर्य : स्वरूप संधारण 1.0 ब्रह्मचर्य का महत्त्व :
अनन्त ज्ञानी अर्हतों के अनुभवों की वाणी का सार आगमों में संगृहीत है। गुरु परम्परा से आगत आगम सार्वभौम और त्रिकाल बाधातीत है। इसके मुख्यत: दो भेद हैं - (i) अंग प्रविष्ट और (ii) अंग बाह्य। इनकी रचना अर्द्ध मागधी प्राकृत में की गई है। जैन साधक (भले ही वह महाव्रतों की साधना करे या अणुव्रतों की) की साधना का आधार आगम ग्रंथ ही होते हैं। इन ग्रंथों में साधना के विविध आयामों में प्रमुख - ब्रह्मचर्य के महत्त्व पर भी पर्याप्त प्रकाश डाला गया
आचारांग सूत्र में ब्रह्मचर्य को परम तत्त्व के समकक्ष कहा गया है। सूत्रकार की भाषा में "जिसे तुम परम तत्त्व के प्रति लगा हुआ जानते हो, उसे कामनाओं से दूर हुआ जानो, जिसे तुम कामनाओं से दूर हुआ जानते हो, उसे परम तत्त्व के प्रति लगा हुआ जानो।''
जैन आचार मीमांसा में आचारांग के नियुक्तिकार भद्रबाहु को संदर्भित करते हुए लिखा गया है कि बारह अंगों में आचारांग प्रथम अंग है। उसमें मोक्ष के उपाय का वर्णन है, वह प्रवचन का सार है। आचारांग के प्रथम श्रुत स्कन्ध का दूसरा नाम ब्रह्मचर्य भी है। आचारांग के नौ अध्ययनों में सारा मोक्ष मार्ग समा जाता है, इससे ब्रह्मचर्य शब्द स्वयमेव महत्ता को प्राप्त हो गया
सूत्रकृतांग सूत्र में ब्रह्मचर्य का बहुत ही विशद वर्णन मिलता है। यहां सभी तपस्याओं में ब्रह्मचर्य को प्रधान माना गया है। सूत्रकृतांग के चूर्णिकार ने इसके महत्त्व को प्रतिपादित करने वाला एक सुन्दर श्लोक उद्धृत किया है
पुप्फ- फलणं च रसं सुराए मंसस्स महिलियाणं च।
___ जाणंता जे विरता ते दुक्करकारए वंदे।। पुष्प, फल, मदिरा, मांस और स्त्री के रस को जानते हुए जो उनसे विरत होते हैं, वे दुष्कर तप करने वाले हैं। उनको मैं वंदना करता हूँ।
ठाणं सूत्र में ब्रह्मचर्य के विविध अंग यथा- शील, व्रत, गुण, मर्यादा, प्रत्याख्यान और पौषधोपवास से युक्त पुरुषों के तीनों भव (1) वर्तमान भव (2) उपपात, इसके बाद का और (3) उसके बाद का आगामी भव- प्रशस्त कहे गए हैं। यहाँ भगवान महावीर ने स्वयं ब्रह्मचर्य की प्रशंसा तो की ही है। उन्होंने यहाँ तक कहा है कि इसका अनुमोदन करने वाला-वर्णवाद करने वाला सुलभ बोधिकत्व कर्म का अर्जन करता है।' इसके साथ ही श्रमण धर्म के दस भेदों में ब्रह्मचर्य को स्थान देकर इसके महत्त्व को और भी अधिक बढ़ाया गया है। यहाँ ब्रह्मचर्य पालन में