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ऊर्ध्वस्थान अवस्था में दोनों नेत्र को नासाग्र या भृकुटी पर स्थिर करना अथवा बार-बार स्थिर करना। भाष्यकार कहते हैं कि इस क्रिया से अपान वायु दुर्बल होती है और प्राणवायु प्रबल। अपानवायु के दुर्बल एवं प्राणवायु के प्रबल होने से कामांग निष्क्रिय हो जाते हैं।" 3.5.4. बंध - योग ग्रन्थों में बंध का प्रयोग साधना का प्रमुख अंग है। मूलबंध, उड्डियानबंध, जालंधरबंध और त्रिबंध आदि बंध के प्रमुख प्रकार हैं।
मूलबंध - श्वास का रेचन कर नाभि को भीतर सिकोड़ कर गुदा द्वार को ऊपर खींचने से मूलबंध होता है। आचार्य महाप्रज्ञ ने संबोधि में मूलबंध को काम विजय का प्रमुख साधन माना है।
जालंधरबंध - ठुड्डी को कंठ कूप में लगाने पर जालंधरबंध होता है। इससे विशुद्धि केन्द्र प्रभावित होता है। चित्त शान्त होता है।
महाबंध - मूलबंध, उड्डीयानबंध और जालंधरबंध - ये तीनों बंध एक साथ करने से महाबंध बनता है। इसे त्रिबंध भी कहते हैं। बाबा रामदेव वीर्य के ऊर्ध्वारोहण तथा वीर्य शुद्धि के लिए महाबंध का प्रयोग बताते हैं।" 3.6. प्रतिसंलीनता
ब्रह्मचर्य विकास के लिए मानसिक चंचलता बहुत बड़ी बाधा है। मानसिक चंचलता का बहुत बड़ा निमित्त है- बाह्य जगत के साथ सम्पर्क। जैन आगमों में इसका समाधान हैप्रतिसंलीनता। प्रतिसंलीनता का अर्थ है- इंद्रिय आदि का बाह्य विषयों से प्रतिसंहरण करना अर्थात् उनकी बहिर्मुखी वृत्ति को अन्तर्मुखी बनाना।
दसवैकालिक अगस्त्यसिंह चूर्णि एवं उत्तराध्ययन शान्त्याचार्य वृत्ति में प्रतिसंलीनता के चार प्रकार बताए गए हैं। 3.6.1 इन्द्रिय प्रतिसंलीनता - इन्द्रिय प्रतिसंलीनता की प्रक्रिया के दो चरण हैं - प्रथम इन्द्रिय विषय से असम्पर्क एवं द्वितीय अनिवार्य रूपेण सम्पर्क प्राप्त विषय के प्रति अनासक्ति अर्थात् राग-द्वेष का अभाव।
साधना काल के प्रारम्भिक स्तर पर जब साधक अपरिपक्व अवस्था में रहता है, विषय से बचाव अत्यावश्यक होता है। विषय के प्रति आन्तरिक अनासक्ति के बिना मात्र बाहरी बचाव ब्रह्मचर्य के लिए सार्थक नहीं होता। इसलिए मनोज्ञ अमनोज्ञ इन्द्रिय विषयों के प्रति आसक्ति (राग-द्वेष) को क्रमिक रूप से कम करना भी आवश्यक है। 3.6.2 कषाय प्रतिसंलीनता - आसक्ति का कारण होता है कषाय - क्रोध, मान, माया
और लोभ। आसक्ति पर विजय पाने के लिए कषाय पर विजय पाना आवश्यक होता है। इसका साधन है- कषाय प्रतिसंलीनता। कषाय प्रतिसंलीनता का अर्थ है उदय में आने वाले कषायों का
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