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बनाए रखना चाहिए। जो व्यक्ति इतना दृढ संकल्पी होता है कि देह त्याग स्वीकार्य है पर स्वीकृत धर्म को छोड़ना नहीं, उस व्यक्ति को इन्द्रियां उसी प्रकार विचलित नहीं कर सकती जिस प्रकार वेगपूर्ण गति से आता हुआ महावायु सुदर्शन पर्वत को।
आचार्य तुलसी के अनुसार ब्रह्मचर्य की साधना के पहले साधक को अपने विचार दढ करने चाहिए। फिर उसमें एक निष्ठा होनी चाहिए। ध्यान रहे कि कहीं बाहरी चकाचौंध में मन फिसल न जाए।
आचार्य महाप्रज्ञ इस संदर्भ में कहते हैं दर्शन का एक आचार है - निशंक होना। सफलता उसे ही वरण करती है जो आस्थावान व संदेह से रहित हो। संशयशील व्यक्ति कितना ही बुद्धिमान क्यों न हो, वह लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर सकता है। 2.3. चारित्र (त्याग)
ज्ञान और श्रद्धा (दर्शन) के बाद अगला चरण है- चारित्र। चारित्र का अर्थ हैअकरण का संकल्प, त्याग, विरति। अर्थात् इन्द्रिय विषयों एवम् तद्जन्य कषाय का त्याग करना। आचारांग सूत्र के अनुसार जो व्यक्ति आश्रवों से विरत नहीं होते वे संसार के भंवरजाल में चक्कर लगाते रहते हैं। सूत्रकृतांग में काश्यप (ऋषभ या महावीर) के द्वारा आचरित धर्म का अनुकरण करने वालों के लिए मैथुन से विरत होने की बात कही गई है। भगवती सूत्र में सांसारिक भोग के त्याग को महत्त्व दिया गया है। शारीरिक दुर्बलता के कारण कोई व्यक्ति भोग को भोगने में समर्थ नहीं है फिर भी वह भोगों का परित्याग नहीं करता तब तक भोगी ही है, त्यागी नहीं। भाष्यकार आचार्य महाप्रज्ञ ने इसे मात्रा-भेद एवं अध्ययवसाय-भेद से और भी स्पष्ट किया है। दुर्बल शरीर वाला व्यक्ति अधिक नहीं तो अल्प मात्रा में तो भोग भोगने में समर्थ होता ही है तथा अध्ययवसाय के स्तर पर भी भोग भोग सकता है। इसलिए वह भोगी है त्यागी नहीं। भोगों के परित्याग से महानिर्जरा व महापर्यवसान की प्राप्ति होती है। 32
दसवैकालिक सूत्र में अन्य महाव्रतों की तरह ब्रह्मचर्य महाव्रत का भी विस्तृत वर्णन के साथ प्रत्याख्यान (त्याग) का निरूपण है। इस सूत्र में विषय भोग का त्याग सापेक्ष दृष्टि से किया गया है। यहाँ मात्र 'अकरण' को त्याग नहीं माना है। त्याग की कुछ कसौटियां दी गई है, उन पर खरा उतरने पर ही 'अकरण' को त्याग माना गया है। वे कसौटियां इस प्रकार हैं -
(i) काम भोग कान्त हो अर्थात् रमणीय, अनुकूल हो। (ii) प्रिय इष्ट हो। (iii) भोग के लिए पदार्थ उपलब्ध हो। (iv) परवशता न हो।
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