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दसवैकालिक सूत्र में सुनने को ज्ञान का माध्यम मानते हुए स्पष्ट किया है
सोच्चा जाणइ कल्लाणं, सोच्चा जाणइ पावगं।
उभयपि जाणइ सोच्चा, जं छेयं तं समायरे।। जीव सुनकर कल्याण को जानता है और सुनकर ही पाप को जानता है। कल्याण और पाप सुनकर ही जाने जाते हैं। वह उनमें जो श्रेय है, उसी का आचरण करे।
उत्तराध्ययन सूत्र में भी ज्ञान का माध्यम तीर्थंकरों द्वारा उपदिष्ट मार्ग को सुनना माना
गया है।
(3) जाति स्मृति - काम भोगों की विरति में जाति-स्मृति ज्ञान अर्थात् पूर्व-जन्म की स्मृति बहुत सहायक सिद्ध होती है। इससे व्यक्ति को पूर्व जन्म में आचरित संयम और उसके फल का ज्ञान हो जाता है। वह पुनः ब्रह्मचर्य के लिए तत्पर हो जाता है। उत्तराध्ययन सूत्र में भृगु पुरोहित के पुत्र द्वय को मुनियों को देखने से जाति स्मृति ज्ञान हो गया। इससे पूर्व जन्म में आचरित तप व संयम की स्मृति जाग गई। 23 2.2. दर्शन
यहां दर्शन का अर्थ है - श्रद्धा, विश्वास, रुचि, यथार्थ दृष्टिकोण, सम्यक् चिंतन। किसी तत्त्व का ज्ञान होने पर भी जब तक उसमें विश्वास और रुचि पैदा नहीं होती उसका आचरण विकसित नहीं होता है।
ब्रह्मचर्य स्वीकार करने के बाद भी ब्रह्मचारी के सामने ऐसे प्रलोभन आ सकते हैं जिससे उसके मन में ब्रह्मचर्य के प्रति शंका उत्पन्न हो जाए। ब्रह्मचर्य के प्रति श्रद्धा के खण्डित होने पर ब्रह्मचर्य को खतरा उत्पन्न हो जाता है। इसलिए अनुकूल या प्रतिकूल हर परिस्थिति में धैर्य के साथ श्रद्धा अर्थात् दर्शन को अड़िग रखना अपेक्षित होता है।
साधना के प्रलम्ब काल में विभिन्न निमित्तों के कारण दर्शन में आरोह-अवरोह की स्थिति आ सकती है। यह श्रद्धा की हानि का प्रसंग है। आचारांग सूत्र में इस संदर्भ में कहा गया
जाए सद्धाए णिक्खंतो, तमेव अणुपालिया। विजहितु विसोत्तियं।
अर्थात् जिस श्रद्धा से अभिनिष्क्रमण करें उसी श्रद्धा को बनाए रखें। चित्त की चंचलता के स्रोत में न बहें। काम-भोगों के लिए यथार्थ दृष्टिकोण के निर्माण के लिए सूत्रकार कहते हैं कि विचलित करने वाले निमित्त उपस्थित होने पर साधक चिंतन करें -
किमेस जणो करिस्सति? अर्थात् यह जन मेरा क्या करेगा? 25
दसवैकालिक सूत्र में भी ब्रह्मचर्य विकास के लिए अटूट श्रद्धा का समर्थन किया गया है। सूत्रकार कहते हैं जिस श्रद्धा से संकल्प को स्वीकार किया जाता है, उस श्रद्धा को पूर्ववत्
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