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(v) स्पर्शनेन्द्रिय संयम - अब्रह्मचर्य का स्पर्शनेन्द्रिय से सीधा संबंध है। जैन आगमों में ब्रह्मचर्य की सुरक्षा के लिए स्पर्शनेन्द्रिय संयम पर सर्वाधिक बल दिया गया है। इसके अन्तर्गत ब्रह्मचारी का स्त्री, पशु आदि के शरीर का स्पर्श, संघर्षण आदि निषेध तो हैं ही स्वयं के गुह्य अंगों का भी अकारण स्पर्श वर्जित है।
ब्रह्मचर्य का तीसरा सुरक्षा चक्र है मन संयम अब्रह्मचर्य के संस्कार सर्व प्रथम मन में अकुंरित होते हैं। मानसिक संकल्प अब्रह्मचर्य का सूक्ष्म अर्थात् अदृश्य निमित्त होता है। यही संकल्प बाह्य निमित्त के मिलने पर विकसित हो जाता है। मानसिक प्रवृत्ति तीन प्रकार की होती हैं- (i) स्मृति (ii) चिंतन (iii) कल्पना ।
(i) स्मृति - अतीत काल में भोगे गए काम भोगों को याद करना 'स्मृति' है। इसलिए ब्रह्मचर्य की सुरक्षा की दृष्टि से जैन आगमों में पूर्व भुक्त भोगों के स्मरण का निषेध किया गया है।
(ii) चिंतन वर्तमान में काम भोग के विषय का चिंतन करना भी ब्रह्मचर्य के लिए खतरनाक होता है। काम-चिंतन से व्यक्ति दिङ्मूढ बन जाता है उसमें कर्तव्य-अकर्तव्य का बोध नहीं रहता है।
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(iii) कल्पना भविष्य में काम-भोगों का संकल्प-विकल्प करना कल्पना है। भविष्य में काम भोग के लिए ताने बाने बुनते रहने से साधक साधना-पथ से पतित हो जाता है।
इन तीनों सुरक्षा चक्रों में मन संयम सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण होता है क्योंकि इसके सुरक्षित न रहने पर प्रथम दो सुरक्षा चक्रों का कोई विशेष उपयोग नहीं रहता है। ऐसी स्थिति में ब्रह्मचर्य मात्र ऊपरी उपचार रहता है जो अधिक देर तक स्थायी नहीं रहता। प्रथम दो सुरक्षा चक्रों का महत्व तभी तक है जब तक साधना परिपक्व नहीं होती। मन के मजबूत हो जाने के बाद इसका कोई विशेष मूल्य नहीं रहता। इस तथ्य के समर्थन में स्थूलिभद्र का उदाहरण लिया जा सकता है। कोशा वेश्या की काम शाला में रहकर, अत्यन्त गरिष्ठ व उत्तेजक पदार्थों का सेवन कर, कोशा वेश्या के कामुक हाव भाव युक्त निमंत्रण को देखते-सुनते हुए भी उनके मन में विकार की एक तरंग भी नहीं उठी।
फिर भी, ब्रह्मचर्य के बाह्य सुरक्षा चक्रों का भी अपना महत्त्व है। स्थूलिभद्र का दृष्टान्त एक अपवाद है। सभी साधक प्राथमिक स्तर पर उतने मजबूत नहीं होते। बाह्य सुरक्षा के अभाव में ब्रह्मचर्य की सुरक्षा संदेहास्पद ही रहती है। वैदिक परम्परा में भी इन सुरक्षा चक्रों को ब्रह्मचर्य काही अंग माना गया हैं।
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ब्रह्मचर्य सुरक्षा के साथ-साथ इसका निरन्तर विकास भी आवश्यक है। जैन आगमों में इसके क्रमिक विकास के अनेक सूत्र प्रतिपादित हैं। आगामी अध्ययन में प्रस्तुत है उन विकास के साधनों का विवेचन।
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