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2.16 संघबद्ध साधना
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जैन परम्परा में साधना के दो माध्यम होते थे - 1. एकाकी साधना और 2. संघबद्ध साधना । जो साधक बहुश्रुत, दृढ़ मनोबली और विशिष्ट शारीरिक संघनन वाले होते थे, वे एकाकी साधना स्वीकार करते थे। सामान्य साधक के लिए संघबद्ध साधना ही निरापद होती थी। वर्तमान में एकाकी साधना का विच्छेद हो चुका है इसलिए दूसरा विकल्प ही साधना का एकमात्र माध्यम है।
सूत्रकृतांग सूत्र की टीका में इस तथ्य को रोचक ढंग से प्रस्तुत किया गया है। टीकाकार कहते हैं कि अकेला सिंह हजारों योद्धा के शिविर को नष्ट कर देता है, वह सदा अकेला रहता है। उसका कोई सहायक नहीं होता। उसे पकड़ना बहुत कठिन है, फिर भी सिंह को पकड़ने के विशेषज्ञ पुरुष उसे जीवित ही पकड़ लेने के अनेक उपाय जानते हैं। इसी प्रकार कोई साधक भले ही कितना ही तेजस्वी और पराक्रमी हो, कुछ स्त्रियां उसे कैसे फंसाया जाए, इसके उपाय जानती हैं।
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स्त्रियों की शारीरिक और मानसिक शक्ति पुरुषों की अपेक्षा कमजोर मानी जाती है। इसलिए स्त्री साधक के लिए तो संघबद्ध साधना ही अनिवार्य होती है। व्यवहार भाष्य में कहा गया है -
जातं पिव रक्खंती, माता- पिति सासु- देवरादिण्णं ।
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पिति भाति पुत्र विध्वं, गुरु-गणि गणिणी म अज्जं पि ।।
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जन्मते ही नारी की रक्षा माता-पिता करते हैं। विवाह के पश्चात् सास, ससुर, देवर, पति आदि रक्षा करते हैं। विधवा होने पर पिता, भ्राता, पुत्र आदि उसकी रक्षा करते हैं। इसी प्रकार आर्यिका की रक्षा आचार्य, गणी, उपाध्याय तथा प्रवर्तिनी - ये करते हैं।
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2.17 सम्यक् प्रवृत्तियों में व्यस्तता
प्रसिद्ध लोकोक्ति है - 'खाली मन शैतान का घर।' मन जब किसी कार्य में व्यस्त नहीं रहता तब वह कामभोगों की तरफ भागता है। आचारांग में काम के प्रति आकर्षण हटाने के लिए मन को स्वाध्याय, ध्यान, सेवा आदि सम्यक् प्रवृत्तियों में नियोजित करना बताया गया है।
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व्यवहार भाष्य में वेदोदीर्ण शिष्य की काम चिकित्सा की अनेक विधियां बताई गई है। वहां अबहुश्रुत शिष्य को वैयावृत्य आदि में और बहुश्रुत शिष्य को सूत्रमंडली, अर्थमंडली में नियुक्त करने का निर्देश है । टीका में इसकी पुष्टी के लिए एक सुन्दर दृष्टान्त भी दिया गया है।
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2.18
हास्यवर्जन
प्रश्नव्याकरण सूत्र में ब्रह्मचारी के लिए हंसी ठट्टा आदि को त्याज्य आचरण कहा है। दसवैकालिक सूत्र में संप्रहास वर्जन का निर्देश है।" यहां संप्रहास का अर्थ समुदित रूप
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