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आवश्यक है। इस कल्प का उल्लंघन होने पर लघुमासिक प्रायश्चित्त का विधान है। 2.15 प्राण विसर्जन आचारांग सूत्र में ब्रह्मचर्य सुरक्षा के अनेक उपायों का निदर्शन हैं काम वासना को नियंत्रित करने के अनेक उपाय कर लेने पर भी यदि काम शांत न हो तो संलेखना कर भक्त प्रत्याख्यान ( अनशन) करने का निर्देश है।
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ब्रह्मचर्य साधक के सामने अनायास ही स्त्री परीषह उपस्थित हो सकता है। ऐसी स्थिति में भी ब्रह्मचर्य साधक के लिए शरीर की अपेक्षा ब्रह्मचर्य अधिक मूल्यवान है। इसलिए ब्रह्मचर्य की सुरक्षा के लिए शरीर का त्याग कर देना तुच्छ वस्तु को छोड़कर मूल्यवान वस्तु को बचाने के समान है। इसे स्पष्ट करते हुए भाष्यकार आचार्य महाप्रज्ञ कहते हैं कि यदि कोई कामुक स्त्री ब्रह्मचारी को बल पूर्वक रोक ले तथा भोग का प्रयास करे और उससे बचने का उपाय न हो तो ब्रह्मचारी के लिए गले में फांसी लगाकर शरीर का विसर्जन करना श्रेयस्कर है।
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इस प्रसंग की प्राचीन परम्परा का उल्लेख करते हुए भाष्यकार लिखते हैं- कोई भिक्षु भिक्षा के लिए जाए। पारिवारिक लोग उसकी पूर्व पत्नी सहित उसे कमरे में बंद कर दे। वह कमरे से बाहर निकल न सके और पत्नी उसे विचलित करने का प्रयत्न करे, तब वह श्वास बंद कर मृतक जैसा हो जाए और अवसर पाकर गले में दिखावटी फांसी लगाने का प्रयत्न करे। उस समय वह स्त्री कहे आप चले जाएं किन्तु प्राण त्याग न करें तब वह भिक्षु आ जाए और यदि वह स्त्री उसे ऐसा न कहे तो वह गले में फांसी लगाकर प्राण त्याग कर दे।
शील रक्षा का प्रयोजन होने पर मुनि के लिए दो प्रकार की मृत्यु का विधान हैं - 1. वैहायस मरण - फांसी लगाकर मरना ।
अपने शरीर का व्युत्सर्ग करना।
है।
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2. गृद्धस्पृष्ट मरण बृहत्काय वाले जानवर के
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सामान्यतः वैहायस मृत्यु की स्वीकृति दी गई है। आचारांग के अनुसार उपसर्ग की अवस्था में अथवा असहनीय मोहनीय कर्म की स्थिति में फंसे हुए साधक के लिए कालपर्याय है। ऐसा करना बाल मरण नहीं है। भगवान द्वारा अनुज्ञात है क्योंकि उस मृत्यु से वह अन्तक्रिया करने वाला अर्थात् पूर्ण कर्म क्षय करने वाला भी हो सकता है। यह मरण प्राण विमोह की साधना
का आयतन हितकर, सुखकर कालोचित्त, कल्याणकारी और भविष्य में साथ देने वाला होता
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,
मृत
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शरीर में प्रवेश कर
ठाणं सूत्र में भगवान महावीर ने ब्रह्मचर्य रक्षा के लिए प्राण विसर्जन अनुचित नहीं माना
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है। आचार्य महाप्रज्ञ के अनुसार ब्रह्मचर्य की रक्षा के लिए प्राणों का नाश करना प्रशस्त मरण है क्योंकि वहां राग-द्वेष की प्रवृत्ति नहीं होती
है।
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