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निशीथ सूत्र में अपने गुह्य प्रदेशों को विविध प्रकार के स्पर्श करने या उसका अनुमोदन करने वाले का गुरुमासिक प्रायश्चित्त बताया गया है। तथा मैथुन सेवन के संकल्प से स्त्री, पशु-पक्षी आदि के अंगोपांग का संचालन करने पर या स्वयं के अंगों से काम चेष्टा करने पर चौमासिक प्रायश्चित्त आता है।
इस सूत्र के वृत्तिकार ने स्त्रियों के साथ मात्र स्पर्शनेन्द्रिय का संबंध ही नहीं पांचों इन्द्रियों के पांच विषयों का संबंध बताया है। उन्होंने इससे संबंधित एक श्लोक उद्धृत किया है
कलानि वाक्यानि विलासिनीनां गतानि रम्याण्यवलोकितानि। रताणि चित्राणि च सुन्दरीणां, रसोपि गन्धोऽपि च चुम्बनानि।। चूर्णिकार ने इस संदर्भ में पांच विषय को विस्तार से इस प्रकार समझाया हैशब्द - स्त्रियों के कलात्मक वाक्य। रूप - रमणीय गति अवलोकन आदि। रस - चुम्बन आदि। गंध - जहां रस है वहाँ गंध अवश्यंभावी है। स्पर्श - संबाधन, स्तन उरु, बदन आदि का संघर्षण।
दसवैकालिक सूत्र में रूप में मन नहीं लगाने का उपदेश देते हुए कहा गया है - ण य रूवेसु मणं करे - रूप में मन न करें। जिनदास गणि महत्तर चूर्णि में इसकी व्याख्या करते हुए कहते हैं - भिक्षाकाल में दान देने वाली या दूसरी स्त्रियों का रूप देखकर यह चिन्तन न करें - 'इसका आश्चर्यकारी रूप है, इसके साथ मेरा संयोग हो, आदि।' रूप की तरह शब्द, रस, गन्ध और स्पर्श में भी मन न लगाए - आसक्त न हों।
उत्तराध्ययन सूत्र में इन्द्रिय विषयों के वर्जन का विस्तृत वर्णन मिलता है। ब्रह्मचर्य समाधि स्थान में इसका उल्लेख है ही। 19 अन्यत्र भी कोमल व अनुकूल विषयों को बहुत लुभावना बताते हुए इन पर आसक्ति का वर्जन किया गया है। परन्तु इस सूत्र की विशेषता यह है कि इसमें न केवल अनुकूल मनोज्ञ विषयों के प्रति राग का निषेध है बल्कि प्रतिकूल विषयों के प्रति द्वेष का भी निषेध है। इसका कारण यह हो सकता है कि राग और द्वेष पृथक-पृथक नहीं होते, दोनों समानान्तर चलते हैं। जब किसी वस्तु या व्यक्ति विशेष के साथ द्वेष होता है तो किसी दूसरे के साथ राग अवश्य होता है।
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