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सरक.
2.4. स्त्रियों के स्थानों का सेवन वर्जन
सूत्रकृतांग सूत्र में इसका अर्थ गृहस्थ की शय्या पर बैठना किया गया है। ठाणं, समवायांग, उत्तराध्ययन एवं आवश्यक वृत्ति में इसका अर्थ है स्त्रियों के साथ एक आसन पर न बैठना तथा जहां स्त्रियां पहले से बैठी हों उस स्थान पर न बैठना। सूत्रकृतांग सूत्र की वृत्ति में इस संबंध में एक गाथा प्रयुक्त की गई है
मात्रा स्वस्त्रा दुहित्रा वा न विविक्तासनो भवेत्।
बलवानिन्द्रिय ग्रामः पण्डितोऽप्यत्र मुह्यति।। अर्थात् ब्रह्मचारी मां, बहिन या पुत्री के साथ भी एक आसन पर न बैठे। इन्द्रिय समूह बहुत बलवान होता है। पण्डित व्यक्ति भी यहाँ मूढ़ हो जाते हैं। स्थानांग वृत्ति के अनुसार स्त्रियों के उठ जाने पर एक मुहर्त के बाद वहाँ बैठा जा सकता है।
समयावांग सूत्र में श्रमण भगवान महावीर ने क्षुल्लक - अवस्था और श्रुत में अपरिपक्व के लिए ही नहीं, व्यक्त-अवस्था और श्रुत में परिपक्व श्रमण निर्ग्रन्थों के लिए निषिध आचरणों में एक आचरण गृहान्तर निषद्या कहा है। इसका अर्थ गृहस्थों के घर न बैठना है। गृहस्थों के घरों में स्त्रियों की प्रधानता होती है। इसलिए ब्रह्मचर्य सुरक्षा के लिए गृहान्तर निषद्या निषेध एक प्रमुख उपाय है।
दसवैकालिक सूत्र में ब्रह्मचारी को गृहस्थों के घर बैठने को अनाचार माना गया है। प्रयोजन वश कहीं जाना भी पड़े तो कार्य सम्पन्न होते ही स्व-स्थान पर लौट आने का विधान है। यहां गृहान्तर निषद्या (गृहस्थ के घर बैठने) में अनेक दोषों का उल्लेख किया गया है -
1. आचार - ब्रह्मचर्य के विनाश की संभावना रहती है। 2. प्राणियों का अवध काल में वध हो जाता है। 3. अन्य भिक्षाचरों के अन्तराय लगती है।
4. जिस स्त्री के घर वह बैठता है उसके तथा ब्रह्मचारी के चरित्र के प्रति लोक में संदेह होने लगता है। 110
2.5. स्त्रियों की मनोरम इन्द्रियों को न देखना, न चिन्तन करना
यह उपाय दृष्टि संयम और मनःसंयम दोनों पक्षों को उजागर करता है। आचारांग सूत्र के अनुसार काम के संस्कार सर्वप्रथम मन में उभरते हैं। मन को अशुभ विचारों से निवृत्त कर लेने, मन का संवरण कर लेने से काम का संकल्प ही उत्पन्न नहीं होता।""इस सूत्र में ब्रह्मचर्य की सुरक्षा के लिए न केवल स्त्री के कामुक अंगों को बल्कि उनके चित्रों को भी वासनापूर्ण दृष्टि से देखने का निषेध है। 12
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