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होती हैं। ऐसा साधक अनुग्रह और निग्रह करने में सक्षम होता है।
आध्यात्मिक दृष्टि से भी ब्रह्मचर्य के लाभ की श्रृंखला कम नहीं है। इससे संवर और निर्जरा दोनों की उपलब्धि होती है। इससे साधना की क्षमता में उत्तरोत्तर वृद्धि होती है। ब्रह्मचर्य का साधक भवान्तर में या तो देव या मनुष्य गति को पाता है या सभी कर्मों को क्षय कर मोक्ष में जाता है।
ब्रह्मचर्य साधना में गहरा उतरने के लिए ब्रह्मचर्य के लाभ को जानने के साथ अब्रह्मचर्य से होने वाली हानियों को जानना भी जरूरी है। यह अनुभव सिद्ध है कि जिसका त्याग किया जाता है उसके दोषों का वास्तविक ज्ञान होने पर ही त्याग टिक सकता है। जैन आगमों में अब्रह्मचर्य जन्य हानियों का भी विस्तृत एवं हृदयस्पर्शी विवेचन किया गया है। इन्हें भी अनेक विभागों में विभक्त किया गया है।
अब्रह्मचर्य से प्रथम व प्रत्यक्ष हानि शारीरिक है। मैथुन सेवन से वीर्य का विनाश होता है। वीर्य का विनाश होने पर शरीर निर्बल हो जाता है। इससे रोग प्रतिरोधात्मक शक्ति कम हो जाती है। फलत: वह अनेक प्रकार के रोगों से ग्रस्त हो जाता है। इससे समय पूर्व बुढ़ापा और अकाल मृत्यु तक हो जाती है।
मानसिक असमाधि का प्रमुख कारण भी अब्रह्मचर्य को माना जाता है। काम-भोगों की आसक्ति में डूबा व्यक्ति परवशता, चिंता आदि मानसिक कठिनाइयों से जूझता रहता है। उसकी बुद्धि, ज्ञान और स्वाभिमान का नाश हो जाता है।
निष्कर्षत: कहा जा सकता है कि अब्रह्मचर्य न केवल एक समस्या है बल्कि अनेक समस्याओं का स्रोत भी है। यह सभी पापों का जनक है। इसके चक्रव्यूह में फंसकर मनुष्य इहभव और परभव दोनों में ही दुःख पाता है। नैतिक, चारित्रिक, व्यावहारिक, भावात्मक और आध्यात्मिक जीवन के हर आयाम में इससे अनेक हानियां हैं।
___ चूंकि ब्रह्मचर्य एक अतिसंवेदनशील साधना है। व्रत स्वीकार करने के बाद भी विभिन्न निमित्तों के कारण व्रत भंग का खतरा बना रहता है। इसलिए इसकी सुरक्षा के उपाय बहुत जरूरी है। आगामी चतुर्थ अध्याय में आगमों में वर्णित ब्रह्मचर्य सुरक्षा के उपायों का विवेचन किया जा रहा है।
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