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तीव्र अनुभाग वाली करता है, अल्प प्रदेश वाली प्रकृतियों को बहुत प्रदेश वाली करता है और आयु कर्म को कदाचित बांधता है एवं कदाचित नहीं बांधता असातावेदनीय कर्म का बार-बार उपार्जन करता है, तथा अनादि अनवद अनंत दीर्घमार्ग वाले चतुर्गति वाले संसार रूपी अरण्य में बार-बार पर्यटन - परिभ्रमण करता है।
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उत्तराध्ययन सूत्र में श्लेष्म में फंसी मक्खी का उदाहरण देते हुए भोगासक्ति से कर्म
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बंधन बताया गया है।
2.6 (9) धर्म से पतन बताया गया है -
हैं।
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दसवैकालिक नियुक्ति में काम-भोगों को धर्म से पतन करने वाला
विसयसुहेसु पसतं अबुजणं कामरागपडिबद्धं ।
उक्कामयंति जीवं धम्माओ तेण ते कामा ।।
अर्थात् विषय सुख में आसक्त और काम राग में प्रतिबद्ध जीव को काम धर्म से गिराते
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2.6 (10) महामोहनीय कर्म का बन्धन - दशाश्रुतस्कंध की नवम दशा में महामोहनीय कर्म बंधन के कारणों का वर्णन है। उसमें यह उल्लेख है कि जो वस्तुतः बाल ब्रह्मचारी नहीं होता हुआ भी अपने आप को बाल ब्रह्मचारी घोषित करता है तथा जो ब्रह्मचारी नहीं होता हुआ भी 'मैं ब्रह्मचारी हूँ' ऐसा कथन करता है वह महामोहनीय कर्म का बंधन करता है। तीव्र अभिलाषा करना भी महामोहनीय कर्म बंध का कारण बताया गया है।
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काम भोगों की
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निष्कर्ष
व्यक्ति किसी भी साधना के प्रति तभी आकर्षित होता है जब उसमें कोई लाभ प्रतीत हो। जैन आगमों में ब्रह्मचर्य का उपदेश मात्र प्रतिपादित नहीं है। बल्कि इससे होने वाले लाभ की भी विस्तृत विवेचना मिलती है लौकिक और पारलौकिक दोनों ही दृष्टियों से ब्रह्मचर्य बहुत लाभप्रद है। यहां ब्रह्मचर्य से होने वाले लाभ को अनेक विभागों - व्यावहारिक, मानसिक, भावात्मक और आध्यात्मिक- में व्यवस्थित किया गया है।
ब्रह्मचर्य साधना से शारीरिक स्वास्थ्य के साथ-साथ लोक में विश्वास और सम्मान की पात्रता भी मिलती है। यह सर्वमंगलकारी है, अहिंसा आदि सभी व्रत, नियम आदि इसी में समाहित हैं इसलिए एक ब्रह्मचर्य के पालन से साधना के सभी आयामों की आराधना हो जाती हैं। मानसिक चंचलता और संस्कारों का अभाव आज की प्रमुख समस्या है। ब्रह्मचर्य इसका एक मात्र समाधान है। ब्रह्मचर्य से व्यवहारिक और मानसिक लाभ के अतिरिक्त भावात्मक लाभ भी बहुत हैं। इससे साधक को आत्मिक सुख की उपलब्धि होती है। लेश्याओं में परिस्कार होता है। इतना ही नहीं नैष्ठिक रूप से ब्रह्मचर्य का पालन करने से अनेक ऋद्धियां भी उपलब्ध
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