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जाने पर कोई साथ नहीं देता। इस प्रकार विषय भोग में आसक्त मनुष्य का कोई त्राण नहीं होता, कोई शरण नहीं होती। 2.6(3) प्रमाद का जनक - पांच आश्रव द्वारों में प्रमुख आश्रव है - प्रमाद अर्थात् आत्म विस्मृति। दसवैकालिक सूत्र में सभी प्रमादों का मूल कारण अब्रह्मचर्य को 'प्रमाद का जनक' कहा गया है। यह चरित्र भंग का प्रमुख कारण है। चूर्णिकार अगस्त्य सिंह के अनुसार अब्रह्म सेवन से प्रमत्त जीव का सारा आचार और व्यवहार प्रमादमय और भूलों से परिपूर्ण बन जाता है।
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2.6(4) दु:ख - आचारांग सूत्र में कामासक्ति को दु:ख का मुख्य हेतु बताया गया है। इसमें दो प्रकार से दुःख की उत्पत्ति बताई है -
(1) सुख का अभाव - कामासक्त पुरुष कभी तृप्ति का अनुभव नहीं करता। वह सदा शोक, भय आदि मोहात्मक भावों से अभिभूत होने के कारण वास्तविक सुख से वंचित
रहता है। 178
(2) दु:ख का उपादान - कामासक्त मनुष्य क्रूर बन जाता है। क्रूर कर्म दुराचरण है दु:ख का हेतु है। परंतु मूर्छा के कारण वह सुख पाने के लिए दुराचरण करता है फलत: वह सुख की अर्थी बनकर दुःख ही पाता है। 179
आसक्त पुरुष राग-द्वेष से बद्ध होकर विषयों के प्रति खींचे चले जाते हैं। इस आसक्ति के चक्र में वे बार-बार दुःख पाते हैं। वे -
* पदार्थ संग्रह के प्रति सचेष्ट रहते हैं।
पदार्थ के संरक्षण और उपयोग की चिंता करते हैं। * उसके व्यय और वियोग में दुःख का अनुभव करते हैं। * पदार्थ के भोग से अतृप्ति की वेदना को प्राप्त करते हैं।
वे अतृप्ति के दोष से दु:खी होकर लोभ से आकुल हो जाते हैं और दूसरों के पदार्थों की चोरी करते हैं। इस प्रकार वे दुःखों के अंतहीन चक्र में फंस जाते हैं।
सूत्रकृतांग सूत्र में अब्रह्मचर्य से होने वाले दु:खों का विस्तृत एवं हृदयस्पर्शी विवेचन किया गया है। कामासक्त पुरुष को मिथ्यादृष्टि, अनार्य, पार्श्वस्थ आदि कहते हुए कहा गया है कि वे भोगों में वैसे ही आसक्त रहते हैं जैसे भेड़ अपने बच्चों में। 181 जिस प्रकार जाल में फंसी हुई मछलियां विषादग्रस्त होती हैं वैसे ही कामासक्त व्यक्ति शोक करता है, क्रन्दन करता है परिताप करता है और विलाप करता है। 182 चूर्णिकार ने एक श्लोक के द्वारा उपरोक्त दु:खों का चित्र प्रस्तुत किया हैहतं मुष्टिभिराकाशं, तुषाणां कुट्टनं कृतम।
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