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________________ गया है। 168 2.5(8) अशुभ लेश्याओं का परिणमन - विषयासक्त मनुष्य की भावधारा- आध्यवसाय सदा मलीन रहती है। इससे उसमें अशुभ लेश्याओं का परिणमन होता है। उत्तराध्ययन सूत्र में इन अशुभ लेश्याओं के कारण व लक्षणों का वर्णन किया गया है। 2.5(9) धर्म की हानि - भगवती आराधना में कहा गया है कि काम से पीड़ित मनुष्य स्त्री आदि के स्मरण में ही रत रहता है। वह अन्यमनस्क होकर धर्म-कर्म भूल जाता है। वह धर्म संघ का विरोधी हो जाता है। 158 2.6 आध्यात्मिक हानियां - अब्रह्मचर्य में रत व्यक्ति न आत्मा में रमण कर सकता है और न आत्म विकास की दृष्टि से कुछ कर सकता है। जैन आगमों में ब्रह्मचर्य से होने वाली अनेक आध्यात्मिक हानियों का उल्लेख अनेक दृष्टियों से किया गया है। 2.6(1) ज्ञान का विपर्यास - अध्यात्म के क्षेत्र में ज्ञान का महत्त्व सर्वोपरि है। ज्ञान से ही व्यक्ति हेय और उपादेय का विवेक कर पाता है। आचारांग सूत्र में विषयासक्ति को ज्ञान प्राप्ति के बाधक तत्त्व के रूप में माना गया है। इसके अनुसार विषय लोलुप व्यक्ति ज्ञान प्राप्ति के अयोग्य होता है। विषयासक्ति के कारण दुर्गति में भटकने से मनुष्य निरंतर मूर्च्छित बना रहता है। मूर्च्छित व्यक्ति धर्म को नहीं जान सकता है। 70 इतना ही नहीं सूत्रकार कहते हैं कि विषयासक्ति से प्राप्त ज्ञान भी विपरीत हो जाता है। अर्थात् इंद्रिय विषयों का आसेवन सुख की अनुभूति पैदा करता है पर उसकी परिणति दुःख में होती है। इसलिए वस्तुत: वह दुःख ही है। अज्ञानी पुरुष इसे समझ नहीं पाता है। 71 सूत्रकृतांग सूत्र के अनुसार काम भोगों में मूर्छित व्यक्ति भगवान महावीर द्वारा कथित समाधि मार्ग को जान ही नहीं सकता है। उत्तराध्ययन सूत्र में बताया गया है कि काम में आसक्त व्यक्ति समाधि योग से भ्रष्ट होकर नरक गति में जाता है। वहाँ से निकलकर भी वह प्रचुर कर्मार्जन के कारण संसार में भ्रमण करता है। उसे बोधि की प्राप्ति अति दुर्लभ हो जाती है।" भगवती आराधना के अनुसार काम से ग्रस्त मनुष्य तीनों लोकों के सारभूत श्रुतज्ञान के लाभ को भी छोड़ देता है। अर्थात् उसे शास्त्र स्वाध्याय में रस नहीं रहता, इससे उसका ज्ञान नष्ट हो जाता है। 14 2.6(2) अत्राणता और अशरणता - आचारांग सूत्र के अनुसार इंद्रिय विषयों के भोग के लिए मनुष्य धन का संचय करता है। पारिवारिक जनों में ममत्व रखता है। फिर भी यह सत्य है कि धन और परिवार त्राण और शरण नहीं दे सकता। शरीर के रोग ग्रस्त हो जाने पर या वृद्धावस्था आ 104
SR No.009963
Book TitleJain Vangmay me Bramhacharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinodkumar Muni
PublisherVinodkumar Muni
Publication Year
Total Pages225
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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