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1.4. आध्यात्मिक लाभ
मनुष्य के आध्यात्मिक विकास में ब्रह्मचर्य का बहुत बड़ा योगदान होता है। इससे चेतना का ऊर्ध्वारोहण होता है। जैन आगमों में ब्रह्मचर्य की आध्यात्मिक उपलब्धियों का अनेक दृष्टियों से वर्णन मिलता है - 1.4(1) दुःख मुक्ति - अध्यात्म साधना का मुख्य उद्देश्य दुःख का आत्यन्तिक अन्त करना होता है। सूत्रकृतांग सूत्र में भगवान महावीर की साधना का वर्णन करते हुए कहा गया है कि उन्होंने दुःखों को क्षीण करने के लिए स्त्री का वर्जन किया।
दसवैकालिक सूत्र के अनुसार काम वासना का अतिक्रम करने से दुःख अपने आप अतिक्रांत होता है।
उत्तराध्ययन सूत्र में भी उदाहरण के साथ यह कहा गया है कि भोगों से विरक्त व्यक्ति शोक-मुक्त बन जाता है। जैसे कमलिनी का पत्र जल से लिप्त नहीं होता वैसे ही वह संसार में रहकर भी अनेक दुःखों की परंपरा में लिप्त नहीं होता है। 32
भगवती आराधना के अनुसार ब्रह्मचर्य का साधक मुक्तात्मा की तरह प्रज्ज्वलित कामाग्नि से जलते हुए सब जगत को एक प्रेक्षक के रूप में देखता है। वह द्रष्टा ही रहता है, कष्ट से स्वयं पीड़ित नहीं होता है। 1.4(2) संवर - संवर का अर्थ है कर्मों को आकर्षित करने वाली प्रवृत्तियों को रोक देना जिससे कर्म बंधन न हों। यह आश्रव का प्रतिपक्षी शब्द है। उत्तराध्ययन सूत्र के अनुसार विषयों एवं मैथुन से विरत जीव अनाश्रव होता है। इसी सूत्र में एक-एक इन्द्रिय के निग्रह का फल बताते हुए कहा गया है कि जीव इन्द्रिय निग्रह से मनोज्ञ और अमनोज्ञ विषयों के प्रति होने वाले राग-द्वेष के निमित्त कर्म बंधन नहीं करता है। 1.4(3) कर्म निर्जरा - कर्म निर्जरा का अर्थ है- आत्म शुद्धि अर्थात् आत्मा के लगे हुए कर्म परमाणुओं का पृथक होना। ठाणं एवं समवायांग सूत्र में कर्म निर्जरा के पांच साधनों में एक मैथुन विरमण - ब्रह्मचर्य को माना है। इस सूत्र में शौच-शुद्धता के प्रसंग में मिट्टी, जल आदि से होने वाले शौच को द्रव्य शौच कहा गया है तथा ब्रह्मचर्य आदि के आचरण को भाव शौच की संज्ञा दी
गई है।
समवायांग सूत्र में इस संदर्भ में एक तात्त्विक प्रश्न खड़ा कर उसका समाधान दिया गया है। प्रश्न है कि विरमण या विरति निर्जरा का कारण कैसे बनती है? विरति संवर है। यहां दोनों स्थानों में उसे निर्जरा का हेतु या निर्जरा माना है, इसकी संगति क्या है?
इसका समाधान देते हुए कहा गया है- जब व्यक्ति विरति या प्रत्याख्यान करता है, उस क्षण की प्रवृत्ति निर्जरा का हेतु बनती है। उस प्रवृत्ति क्षण के पश्चात् वह विरमण संवर की
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