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मिलता है उसके अनुसार जीव के अध्यवसायों के अनुरूप उसकी लेश्याओं का निर्माण होता है शुभ अध्यवसायों से शुभ लेश्याएं और अशुभ अध्यवसायों से अशुभ लेश्याएं बनती हैं। जो व्यक्ति विषयों की आसक्ति से मुक्त होता है उसके अध्यवसाय पवित्र होते हैं फलतः उसमें शुभ लेश्याओं का परिणमन होता है।
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1.3 (2) आत्मिक सुख (समाधि) सुख दो प्रकार का होता है- (1) पौद्गलिक सुख और (2) आत्मिक सुख अर्थात् समाधि । पौद्गलिक सुख अत्यल्प और क्षणिक होता है। जबकि आत्मिक सुख अनंत और शाश्वत होता है।
सूत्रकृतांग सूत्र में ब्रह्मचर्य से आत्मिक सुख की प्राप्ति बताई गई है। " व्याख्या साहित्य में काम भोगों से बचने की प्रेरणा देते हुए कहा गया है कि इस लोक में भी वही व्यक्ति सुखी होता है जो अपनी कामेच्छा का निरोध करता है। फिर परलोक की तो बात ही क्या ? चूर्णिकार ने आत्मिक सुख को चक्रवर्ती और इंद्र के सुख से भी ऊंचा मानते हुए कहा है
नैवास्ति राजराजस्य तत् सुखं नैव देवराजस्य। यत् सुखमिहैव साधोलॉक व्यापाररहितस्य ।।
(प्रशमरति आन्हिक 128) जो मुनि लौकिक व्यापार से मुक्त है, उसके जो सुख होता है वह सुख चक्रवर्ती या इन्द्र के भी नहीं होता है।
तणसंधारणिवण्णो वि मुणिवर भग्गराग-मय दोसो । पावति मुत्ति सुहं ण चक्कवट्टी वि तं लभति । । (संस्तारक प्रवीर्णक गा. 48 )
तृण संस्तारक पर निविष्ट मुनि राग-द्वेष रहित क्षण में जिस मुक्ति सुख का अनुभव करता है वह चक्रवर्ती को भी उपलब्ध नहीं होता है।
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ठाणं सूत्र " एवं उत्तराध्ययन सूत्र " में भी मैथुन एवं काम भोग विरति रूप ब्रह्मचर्य से समाधि की उपलब्धि की बात स्वीकार की गई है।
1.3 (3) घोर ब्रह्मचर्य ऋद्धि ब्रह्मचर्य की साधना से अनेक प्रकार की ऋद्धियां उत्पन्न हो जाती हैं। उनमें से एक है- 'घोर ब्रह्मचर्य ऋद्धि' । यह चारित्र मोहनीय कर्म के उत्कृष्ट क्षयोपशम से होती है। इसके होने से साधक का मन स्वप्न में भी विचलित नहीं होता। इस ऋद्धि के प्रभाव
से साधक जिस स्थान में रहता है वहां चोरी, भय, दुर्भिक्ष, महामारी, महायुद्ध आदि नहीं होते हैं।
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1.3 (4) सुलभ बोधिता - संबोधि ग्रंथ में आचार्य महाप्रज्ञ ने ब्रह्मचर्य रूप भौतिक सुखों की अनिदानता को मृत्यु के उपरांत भी सुलभ बोधिता का कारण बताया है।
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