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क्वचिद् धर्मवशाद् ग्राह्यं हिताप्रियं महात्मभिः ।
वचनं धर्मसिद्धयर्थं विपाके केवलं हितम् ।।१२९।। अर्थात् - महात्मा लोग कभी-कभी धर्म के निमित्त से होनेवाले अप्रिय किन्तु हितकारी वचनों को धर्म की सिद्धि करनेवाले और ग्रहण करने योग्य समझते हैं क्योंकि ऐसे वचनों का अन्तिम फल आत्मा का हित होता है। (मूलाचार प्रदीप - पृष्ठ १९) इसलिए -
शासनमर्हता प्रतिपद्यध्वं मोहव्याधि वैद्यानाम् । ये मुहूर्तमात्रकटुकं पश्चात्पथ्यमुपदिशन्ति ।।
(मुद्राराक्षस-४/१८) अर्थ : वैद्यरूपी अरिहन्तों के उपदेश को स्वीकार करो, क्योंकि वे मोहरूपी व्याधि को निवारण करनेवाले वैद्य हैं । मुहर्तमात्र के लिए भले ही उनका वह उपदेश कटु लगता है किन्तु पश्चात् वह हितकर हो जाता है।
परन्तु जैसे किसी जन्मजात दरिद्री को चिन्तामणि रत्न प्राप्त हो और वह उसे ग्रहण न करे अथवा कोढ़ी को अमृत के समान इक्षुरस प्राप्त हो और वह उसे प्राशन न करे; वैसे ही सग्रन्थता और अधःकर्म में रत साधु और उनके भारी खर्चों के बोझ से पीड़ित गृहस्थ कड़वे सच रूपी सन्मार्गदीपक प्राप्त होने पर भी यदि इसके निर्मल प्रकाश से अज्ञान अंधकार से मुक्ति पाने के बजाय शास्त्रविरोधी दृष्कर्मों में ही रत रहते हैं तो उनके दुर्भाग्य का वर्णन कौन कर सकता है ? केवली भगवान उनके प्रदीर्घ संसार को देख रहे हैं, ऐसा समझना चाहिये ।
बालानां हितकामिनामतिमहापापैः पुरोपार्जितैः माहात्म्यात्तमसः स्वयं कलिबलात् प्रायो गुणद्वेषिभिः । न्यायोऽयं मलिनीकृतः कथमपि प्रक्षाल्य नेनीयते
सम्यग्ज्ञानजलैर्वचोभिरमलं तत्रानुकम्पापरैः ।। अर्थात्-इस दु:षम कलिकाल के प्रभाव से सद्धर्मद्वेषी लोगों ने पूर्व में उपार्जित महापापों से उत्पन्न मिथ्यात्व के अंधकार से जिनमार्ग को आच्छादित करके मलिन कर दिया है । जो अज्ञानी लोक उस
अंधकार में भ्रमित हो रहे है, अनुकंपा से प्रेरित होकर उनके कल्याण का इच्छुक होकर उसे सम्यज्ञान के वचनों रूपी जल से निर्मल करते हुए प्रयत्नपूर्वक पुनः प्रकाशित किया जा रहा है। (न्यायविनिश्चय)
विकाशयन्ति भव्यस्य मनोमुकुलमंशवः। वेरिवारविन्दस्य कठोराश्च गुरूक्तयः ।।
(आत्मानुशासन -१४२) जिस प्रकार सूर्य की कठोर भी किरणे कमल को प्रसन्न-विकसित करती हैं उसी प्रकार गुरु के कठोर वचन भी भव्य जीवों के मन को प्रसन्न करते हैं।
शास्त्राग्नौ मणिवद् भव्यो विशुद्ध भाति निर्वृतः । अङ्गारवत् खलो दीप्तो मली वा भस्म वा भवेत् ।।
(आत्मानुशासन-१७६) इस शास्त्र रूपी अग्नि में तप कर भव्य जीव विशुद्ध हो जाता है और दुष्टजन अंगार के समान तप्त हो जाते हैं अथवा भस्म के समान भस्मीभूत हो जाते हैं।
- कड़वे सच ...................-१४१ --
.... कड़वे सच...