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वांछा का, बाह्याभ्यन्तर परिग्रहों का, लोकरंजना का, अशुद्ध आहार-पान एवं वसतिका आदि का, (कम्प्युटर, टेप, टीवी, सीडी प्लेअर आदी रागवर्धक उपकरणों) का तथा आगमविरुद्ध आचरण करनेवाले साधुओं की एवं असंचमीजनों की संगति का त्याग कर मन एवं इन्द्रियों का निग्रह करते हुए और चारों आराधनाओं का निरतिचार पालन करते हुए समाधिपूर्वक मरण करना चाहिए। (मरण कण्डिका - पृष्ठ ११२)
सद्गुरु का वास्तविक रूप, स्वरूप और कार्य जब जक समाज की समझ में नहीं आयेगा तब तक वह जनकल्याण और प्रभावना के नाम पर अपनी तुंबड़ी भरने में रत कुगुरुओं के जाल में फंसा रहेगा और शास्त्रानुसार आचरण करने वाले सद्गुरुओं की उपेक्षा करते हुए दर्गति की ओर ही गमन करता रहेगा। धवला पुस्तक में कहा है -
प्रमाणनयनिक्षेपैः योऽर्थान्नाभिसमीक्ष्यते ।
युक्तं चायुक्तवद्धाति तस्यायुक्तं च युक्तवत् ।। अर्थात् - जो पदार्थ प्रमाण, नय और निक्षेप के द्वारा सम्यक् रीति से नहीं जाना जाता है, वह पदार्थ युक्त होते हुए भी अयुक्त की तरह प्रतीत होता है और अयुक्त होते हुए भी युक्त की तरह प्रतीत होता है ।
वर्तमान परिस्थिति में सद्गुरु और कुगुरु के विषय में सर्वत्र यही हो रहा है । इसलिए तत्त्वार्थश्लोकवार्तिकालंकार (१/३२-११६, पुस्तक ४) में कथित 'वादीको दोनों कार्य करने चाहिये । अपने पक्षका (सद्धर्मका) साधन करना और प्रतिपक्ष (कुधर्म) में दूषण उठानाउसका खंडन करना' इस नीति के अनुसार विश्वहितकारी जिनधर्म का वास्तविक स्वरूप भव्यजनों के पुनर्लान में आये तथा जिनोपदिष्ट सन्मार्ग से अस्थिर हुए जीव पुनः धर्ममार्ग में स्थिर होकर स्व-पर कल्याण करें इस पवित्र भावनासे प्रेरित होकर ये कड़वे सच एकत्रित किये गये हैं । परन्तु 'को न विमुह्यति शास्त्रसमुद्रे ?' इसलिए शास्त्रों का अर्थ करने में अथवा उसे प्रकट करने में यदि मेरी अल्पबुद्धि के ... कड़वे सच ...................... - १३९ -
कारण कही कोई भूल हुई हो तो पापभीरु विद्वजन उसे जिनवाणी के अनुसार सुधार लेवे । क्वचित् कोई शब्द कठोर लगता हो तो इतना ही विचार करे कि औषधि रोगी की इच्छा के अनुसार नहीं दी जाती, रोग के अनुसार वैद्य ही उसका निर्धारण करता है ।
उनके प्रमाण क्यों ? यहाँ कोई कहता है - इसमें जिनके प्रमाण दिए गये हैं उनमें से भी कई साधु स्वयं ही तो मोबाईल, मोटर आदि परिग्रह रखते होंगे । फिर उनके प्रमाण किस लिए दिये ?
उत्तर - जैसे नीचा परुष जिसका निषेध करे उसका उत्तम पुरुष के तो सहज ही निषेध हुआ । उसी प्रकार जिनके पास परिग्रह हैं वे ही उसका निषेध करें तब तो सच्चे धर्म की आम्नाय में तो परिग्रह रखने का निषेध सहज ही सिद्ध होता है । अतः उत्तम मुनियों में परिग्रह का संपूर्ण अभाव सिद्ध करना यही उसका प्रयोजन समझना चाहिए ।
शंका-यह तो ठीक है । परन्तु जो यथार्थ मार्ग से विपरीत चल रहे हैं उनको इन तथ्यों के प्रकट होने से दःख होगा; इसलिए ये कड़वे सच किसलिए प्रगट करे?
समाधान - हम कषायों से किसी की निंदा करे व औरों को दुःख उपजाए तो हम पापी ठहरे; परन्तु जिनेंद्र के उपदेश से विरुद्ध आचरण करने वालों की भक्ति करने से भोले जीवों को मिथ्यात्वादि पापकर्मों का बंध होकर वे दःखी होंगे, इसलिए करुणाभाव से यह यथार्थ निरूपण किया है। अब कोई सत्य को स्वीकार करने के बजाय दःखी होकर सत्य का विरोध करे तो हम क्या करें ? जैसे - मांस-मदिरा आदि के सेवन से होनेवाली हानियों को कहने से मांस-मदिरा के व्यावसायिक दःखी हो तथा खोटा-खरा पहचानने की कला बतलाने से ठग दःखी हो तो कोई क्या करें ? इसी प्रकार यदि सुखशील साधुओं को बुरा लगने के भय से समीचीन धर्मोपदेश न दे तो जीवों का भला कैसे होगा ? इसलिए कड़वे सच का प्रकाशन आवश्यक है ।
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