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तेल निकाला जा चुका है ऐसी खली के टुकड़े के समान निःसार और निरर्थक सांसारिक भोग तथा दुर्गति है। इसलिए कहा है आगम चक्खु साहू ।
अर्थात् - आगम ही साधु के नेत्र हैं । आगम सबका हित करनेवाला है | आगम ही हम सबका आधार है । (अक्षय ज्योति (जुलाईसितंबर / २००४ ) - पृष्ठ २७ )
जैसे औषधि में फेरफार करने से रोग दूर नहीं होता है, उसी प्रकार जिन भगवान् के द्वारा बताये गये मार्ग का उल्लंघन करने से कर्मों के रोग का क्षय नहीं होता । (चारित्र चक्रवर्ती- पृष्ठ ३३८) अर्थात् जिनवाणी जिस रूप में कही गयी है, उसे उसी रूप में स्वीकार करना चाहिए ।
आवाहन
प्राणों को हथेली पर रखनेका सामर्थ्य हो तो जिनमुद्रा स्वीकारिए । ये मोक्षमार्ग है, निरीहवृत्ति, निस्पृहता का मार्ग है। दुनिया के प्रपंचों का मार्ग नहीं है। (इष्टोपदेश सर्वोदयी देशना पृष्ठ २४० )
जैन योगियों का मार्ग जगत के मार्गों से अत्यन्त भिन्न है, ऐसा समझना चाहिए । साथ ही उन ज्ञानी विद्वानों को भी इंगित करता हूँ - जो साधुसमाज से लौकिक कार्यों की अपेक्षा रखते हैं । विद्वानों ! क्या यह (निर्माण का मार्ग दिगम्बर साधकों का है ? ... लौकिक कार्यों में साधुओं से किसी प्रकार की इच्छा रख अपनी प्रज्ञा की न्यूनता की पहचान न कराएँ - उन्हें श्रमणाभास (बनने) की ओर न ले जाएँ। यह मार्ग सामाजिक व राजनैतिक कार्यों से भिन्न है। जैन श्रमणों की वृत्ति अलौकिक होती है । आप जैसे सुधी श्रावक विद्वान् उन्हें लोकाचार में ले जाने का विचार करें - यह उचित नहीं । ( स्वरूप- सम्बोधन परिशीलन- पृष्ठ १२४ - १२५ )
सिद्धान्तसारसंग्रह में कहा है- व्रतियोंके व्रतोंमें दोष लगाना चारित्रमोहनीय कर्मके बन्धका कारण है । (९ / १४६ - १४७, पृष्ठ २२६२२७) इसलिए प्रत्येक व्यक्ति का कर्तव्य है कि वह संयम धारक को व्रतों से डिगने की बात कभी न कहे। अन्यथा स्व तथा पर की कड़वे सच ११३७
निश्चय से दुर्गति हुए बिना नहीं रहती है। पाप पक्ष का समर्थन करके संयमी का पतन कराने वाले व्यक्ति को यमराज का सगा-संबंधी सोचना उचित है। कृत-कारित अनुमोदना में भी समान फल होता है । पापोदय से शास्त्रज्ञ (ज्ञानी मनुष्य ) भी इस तत्त्व को भूल जाता है। ( आध्यात्मिक ज्योति पृष्ठ ९५ )
लिंग (मुनिवेष) को जिस रूप में कहा गया है उसको उस रूप में आप सुरक्षित नहीं रखोगे तो ध्यान रखना, आर्ष मार्ग आपके हार्थो सुरक्षित नहीं है । इस सम्बन्ध में कोई प्रत्यक्ष वा परोक्ष समर्थन करने वाला व्यक्ति भी उसी में शामिल माना जायेगा । (श्रुताराधनापृष्ठ ५६)
काल-परिस्थितियों के अनुसार दृष्टान्त बदल सकते हैं, समझाने की शैली बदल सकती है, भाषा, वेशभूषा, रहन-सहन बदल सकता है, पर मूल सिद्धान्त कभी नहीं बदलते हैं। (मर्यादा शिष्योत्तम - पृष्ठ ३०६ ) इसलिए एक बात ध्यान रखना, चाहे कितनी ही मुसीबत आये सुधारवाद के नाम पर, आगमनिष्ठ बनकर रहना । आगम को मोड़ने का दुष्प्रयास कभी मत करना । (पृष्ठ ३५ )
उपदेश का अभिप्राय
हमारे पूर्वाचार्यों ने कभी आरम्भ और परिग्रह का समर्थन नहीं किया और न ही वे मार्ग को विकृत करने वालों के प्रति मौन रहे । उन्होंने ऐसे साधुओं का तीव्र विरोध ही किया है। उनका चिंतन इस प्रकार थाजिन बातों का धर्म से संबंध हैं, उनके विषय में यदि ज्ञानी साधु सन्मार्ग न दिखाये तो स्वच्छंद आचरण रूपी व्याघ्र धर्म एवं धार्मिक जन रूपी हिरणों का भक्षण किये बिना नहीं रहेगा । प्रश्न- गुरु की इस मान्यता का क्या अभिप्राय है?
उत्तर - अपने शिष्य समुदाय को सन्मार्ग का उपदेश देते हुए आचार्यदेव जो अपनी मान्यता या अपना दृष्टिकोण व्यक्त कर रहे हैं उसका अभिप्राय यह है कि प्रत्येक साधु को अपने-अपने साधुत्व रूपी मन्दिर पर कलशारोहण करने हेतु ख्याति-पूजा और लाभ की -१३८ -
कड़वे सच