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श्रेयस्कर है। चाहे सारा विश्व विरुद्ध हो जाए, न्यायपथ से ज्ञानी नहीं डिगते हैं । (अंतर-शोधन- पृष्ठ ७२) यही सत्य की खोज करने का यथार्थ फल है।
प्रश्न- परन्तु कभी-कभी किसी मुनि के मूलगुणों में भी दोष लगता हैं ऐसे मुनि को कैसे सच्चे मुनि माने ?
समाधान - ब्र. यशपाल जैन गुणस्थान विवेचन में कहते हैं- जो उत्तरगुणों की भावना से रहित हो और किसी क्षेत्र या काल में किसी मूलगुण में अतीचार लगावें तथा जिनके अल्प विशुद्धता हो उन्हें पुलाक मुनि कहते हैं ।
पुलाक मुनि वैसे तो भावलिंगी मुनिराज ही होते हैं परन्तु व्रतों के पालन में क्षणिक अल्पदोष हो जाते हैं; फिर भी यथाजातरूप ही हैं। (पृष्ठ १५९) (दीक्षा लेते ही) चारित्र की शुद्धता एकसाथ प्रगट नहीं हो जाती किन्तु क्रमशः प्रगट होती है। (मोक्षमार्ग की पूर्णता - पृष्ठ ९४ ) भावलिंगी मुनिराज भूमिका के योग्य (संज्वलन) क्रोधादि कषाय रूप परिणत होते हुए भी उनका भावलिंगपना (मुनिपद) सुरक्षित रहता है। (पृष्ठ १०६) शंका- परन्तु यदि कोई मुनि भूमिका के अयोग्य प्रत्याख्यानावरणादि कषाय रूप परिणत हो जाये तब तो उनका मुनिपद छुटेगा या नहीं ? समाधान - हाँ ! उतने काल तक उनका भावलिंग छूटता है परन्तु...
"मोहोदय से अबुद्धिपूर्वक श्रद्धा तथा चारित्र गुणों के परिणमन में विपरीतता आ गयी है । परिणामों की शिथिलता से गुणस्थान गिर गया है। तत्काल वे अपने को बुद्धिपूर्वक संभालने का प्रयास करते हैं। दूसरों को किंचित् मात्र पता भी न चल पावे, इतने में ही वे पुनः सातवे गुणस्थान
प्रविष्ट होकर पूर्व अनुभूत आत्मानन्द का रसास्वादन भी करने लगते हैं।" ( गुणस्थान विवेचन - पृष्ठ ८२) अर्थात् तत्काल पुन: भावलिंग को पुनः प्राप्त कर लेते हैं । अतः देव-शास्त्र-गुरु पूजन की जयमाला में डॉ. हुकमचन्द भारिल्ल ने जो भावना प्रकट की है उसके अनुसार -
जिनवाणी के अन्तर्तम को, जिन गुरुओं ने पहिचाना हैं । उन गुरुवर्यों के चरणों में, मस्तक बस हमें झुकाना हैं । कड़वे सच
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फिर भी आप चाहो तो कानजी स्वामी के अनुसार "परिक्षा तो करना, परन्तु जिन - आज्ञा को मुख्य रखकर करना । सर्वज्ञ की आज्ञा मानकर परीक्षा करना; अकेली परीक्षा करने जाओगे तो भ्रष्ट हो जाओगे। (ज्ञान-गोष्ठी - पृष्ठ ३२ )
गृहस्थ का कर्तव्य
२८ मूलगुणों का पालन करने वाले इन मुनियों के प्रति गृहस्थों के कर्तव्य का सम्यग्बोध कराते हुए पं. रतनचन्द भारिल्ल कहते हैं -
"जब-जब मुनियों की आहार चर्या हेतु नगर में आने की संभावना होती है, तब-तब गृहस्थ स्वयं के लिए भी ऐसा शुद्ध आहार बनाकर तैयार रखते हैं, जो मुनियों के योग्य हो और मुनियों के आहार हेतु आगमन के काल तक द्वार प्रेक्षण करते हैं, अर्थात् मुनियों के आने की प्रतीक्षा करते हैं।" (चलते फिरते सिद्धों से गुरु पृष्ठ ४८) "मुनि सहज भाव बिना किसी पूर्वसूचना के मुद्रिका बाँधे द्वार पर आयें तो गृहस्थ उनका नवधा भक्ति पूर्वक पड़गाहन करके आहार हेतु आह्वानन करते हैं तथा उन्हें आहार कराकर स्वयं भोजन करते हैं।" (पृष्ठ ४८-४९ )
परमात्मप्रकाश (टीका) में कहा है- आहारदानादिक ही गृहस्थों का परम धर्म है । (२/१९*४, पृष्ठ २३१) क्योंकि सत्पात्रदान (आहारदान) के प्रसंगसे अन्तरमें स्वयंकी धर्मकी प्रीति पुष्ट होती है । अत: हे भाई! पात्रदान की महिमा जानकर तू तेरी लक्ष्मी का सदुपयोग कर । (श्रावकधर्मप्रकाश पृष्ठ ८८ )
पं. टोडरमल ने कहा हैं - सच्चे धर्मकी तो यह आम्नाय है कि जितने अपने रागादि दूर हुए हों, उसके अनुसार जिस पदमें जो धर्मक्रिया संभव हो वह सब अंगीकार करें। (मोक्षमार्गप्रकाशक- पृष्ठ २४० )
इसलिए धर्मके प्रेमी जीव भोजनादि सर्व प्रसंगमें प्रेमपूर्वक धर्मात्माको याद करते हैं कि मेरे आँगनमें कोई धर्मात्मा अथवा कोई मुनिराज पधारे तो उनको भक्तिपूर्वक भोजन देकर मैं भोजन करूँ । भरत चक्रवर्ती जैसे धर्मात्मा भी भोजनके समय रास्ते पर आकर मुनिराजके
कडवे सच
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