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इसलिए कानजी स्वामी स्पष्ट शब्दों में कहते थे - जो निम्रन्थ गुरुओं को नहीं मानता, उनकी पहचान और उपासना नहीं करता, उसको तो सूर्य उगे हुए भी अन्धकार है । (जिनपूजन रहस्य - पृष्ठ ५२)
___ इसलिए पं. रतनचन्द भारिल्ल कहते हैं - पूज्यता का आधार तो बाहर में २८ मूलगुणों का निर्दोष पालन करना ही मुख्य है । अत: जो भी २८ मूलगुणों का निर्दोष पालन करते हैं वे सब पूज्य है। अन्दर के परिणामों की पहचान तो सर्वज्ञ के सिवाय किसी को होती नहीं है; अत: 'द्रव्यलिंग' शब्द को निन्दा के अर्थ में नहीं समझना चाहिए। (चलते फिरते सिद्धों से गुरु - पृष्ठ ८१) ।
अत: यह स्पष्ट हो जाता है कि (द्रव्यलिंगी और) भावलिंगी मुनि का निर्णय हम-आप जैसे अल्पज्ञ जनों से परे है । हमें तो मुनि के द्रव्य वेष और बाह्य आचरण को देखकर ही मुनिमुद्रा को पूज्य मानकर उनका यथोचित सत्कार करना चाहिये । (प्रवचन निर्देशिका - पृष्ठ १६१)
द्रव्यलिंगी से व्यवहार द्रव्यलिंगी और मिथ्यादृष्टि पर्यायवाची नहीं है । इनमें बहुत अन्तर है। द्रव्यलिंग तो जीव की अणुव्रत-महाव्रतादि रूप बाहाक्रिया है, जो व्यवहार चारित्र होने से व्यवहार से पूज्य है और मिथ्यात्व तो जीव की विपरीत मान्यता होने से निन्द्य है, त्याज्य है। अतः 'द्रव्यलिंगी अर्थात मिथ्यादृष्टि' यह भ्रान्ति नहीं रखना चाहिए। (क्रिया, परिणाम और अभिप्राय - पृष्ठ ७४-७५) क्योंकि चरणानुयोग में बाह्यक्रिया की प्रधानता होने से - "भावलिंग रहित द्रव्यलिंग" भी वन्दनीय कहा गया है । (पृष्ठ ७७)
पण्डित टोडरमल ने स्वयं (मोक्षमार्ग प्रकाशक के) आठवे अधिकार के चरणानुयोग प्रकरण में द्रव्यलिंगी को सम्यग्दृष्टि द्वारा वन्दनीय कहा है। (पृष्ठ ८९) उनका मूल कथन निम्न प्रकार हैं
यहाँ कोई प्रश्न करे - सम्यक्त्वी तो द्रव्यलिंगीको अपने से - कड़वे सच ..................- ९९ -
हीनगुणयुक्त मानता है, उस (द्रव्यलिंगी) की भक्ति कैसे करे ? ।
समाधान - व्यवहारधर्मका साधन द्रव्यलिंगीके बहत है और भक्ति करना भी व्यवहार ही है । इसलिये जैसे - कोई धनवान हो परन्तु जो कुलमें बड़ा हो उसे कुल की अपेक्षा से बड़ा जानकर उसका सत्कार करता है; उसी प्रकार आप सम्यक्त्व गुणसहित है, परन्तु जो व्यवहारधर्ममें प्रधान हो उसे व्यवहारधर्मकी अपेक्षा गुणाधिक मानकर उसकी भक्ति करता है, ऐसा जानना । (मोक्षमार्गप्रकाशक - पृष्ठ २८३-२८४)
प्रश्न - ऐसे द्रव्यलिंगी मुनिराज के साथ सच्चे श्रावक को कैसा व्यवहार रखना चाहिए?
उत्तर - यदि अठाईस मूलगुणों का आचरण आगमानुकूल हो तो द्रव्यलिंगी मुनिराज के लिए क्षायिक सम्यग्दृष्टि तथा पंचम गुणस्थानवर्ती श्रावक नमस्कारादि विनय व्यवहार तथा आहारदान आदि क्रियायें हार्दिक परिणामों से करे; क्योंकि नमस्कार आदि व्यवहार है और मुनिराज का व्रत पालन भी व्यवहार है । सूक्ष्म अंतरंग परिणामों का पता लग भी नहीं सकता क्योंकि वे तो केवलज्ञानगम्य होते हैं । व्यवहारी जनों के लिए द्रव्यलिंगी भी पूज्य है। (गुणस्थान विवेचन - पृष्ठ ८१) ब्र. यशपाल जैन का यह अभिप्राय सब के लिए मार्गदर्शक है। क्योंकि-चरणानुयोग के भी नियम होते हैं, उनको जानकर विवेकपूर्ण आचरण रखना योग्य है, नहीं तो मिथ्यात्व का दोष लगता है। (सर्वज्ञप्रणीत जैन भूगोल - पृष्ठ ६७) निष्कर्ष -जिनको 'चलते फिरते सिद्धों से गुरु कहा जाता हैं ऐसे वर्तमान के जो मुनि '२८ मूलगुणों का शास्त्रानुसार पालन करते हैं, वे यदि 'भावलिंग रहित' भी हो तब भी वन्दनीय हैं इस सत्य की खोज करने के बाद भी यदि क्रिया, परिणाम और अभिप्राय में तालमेल नहीं होगा तो इन भावों का फल क्या होगा यह विचार करके सत्य का स्वीकार करना चाहिये । क्योंकि न्याय का विनय होना ही
.. - कड़वे सच . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . १००/-.