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आगमनकी प्रतीक्षा करते थे, और मुनिराजके पधारने पर परम भक्तिपूर्वक आहारदान करते थे । (कानजी स्वामीकृत प्रवचन- श्रावकधर्मप्रकाश - पृष्ठ ४५-४६) धर्म, धर्मी जीवके आधारसे है इसलिए जिसे धर्मी जीवोंके प्रति प्रेम नहीं, उसे धर्मका प्रेम नहीं । (पृष्ठ ५० )
धनवान् अर्थात् जिसने अभी परिग्रह नहीं छोड़ा ऐसे श्रावक का मुख्य कार्य सत्पात्रदान है । ( श्रावकधर्मप्रकाश - पृष्ठ ४८ ) इसलिए मुनिराजको अथवा धर्मात्माको अपने आँगनमें भक्तिसे आहारदान करना उस (गृहस्थ ) का प्रधान कर्तव्य कहा गया है। (कानजी स्वामीकृत प्रवचन श्रावकधर्मप्रकाश पृष्ठ ५२ )
मुनिराज को देखकर सम्यग्दृष्टि श्रावक का मनमयूर भावविभोर होकर विचार करता है- अहो धन्य ये सन्त ! धन्य आज का दिन कि मेरे आँगन में मोक्षमार्गी मुनिराज पधारे । आज तो जीता-जागता मोक्षमार्ग मेरे आँगन में आया । अहो ! धन्य यह मोक्षमार्ग ! ऐसे मोक्षमार्गी मुनि को देखते ही गृहस्थ को ऐसे भाव आते हैं कि अहो ! रत्नत्रय को साधनेवाले इन मुनि को शरीर की अनुकूलता रहे ऐसा आहार - औषध देऊँ जिससे ये रत्नत्रय को निर्विघ्न साधे । ( कानजी स्वामी श्रावकधर्मप्रकाश पृष्ठ ५४-५५ )
जिस दिन मुनिके आहारदानका प्रसंग अपने आँगनमें हो उस दिन उस श्रावकके आनन्दका पार नहीं होता । श्रीराम और सीता जैसे भी जंगलमें मुनियोंको भक्तिसे आहारदान करते हैं । (पृष्ठ ५५ ) दूसरी ओर वर्तमान के नगरवासी सब साधन-सुविधाओं के होते हुए भी अनेक निरर्थक बहाने बनाकर आहारदान करने से दूर रहते हैं ।
इसलिए आ. सुविधिसागर कहते हैं - मुनियों की दो-चार जयकार क्या बोल दी, हो गई तुम्हारे कर्तव्य की इतिश्री । नमस्कार किया और चल दिए । तुमने केवल स्वांग रचे हैं भक्ति के । (ऐ बेलगाम के घोड़े ! सावधान पृष्ठ ६९) हमारा संघ यहाँ आया है, समाज के कितने लोगों ने चौके लगाए ? (धर्ममंगल (मई २०११ ) - पृष्ठ १५) अरे ! अतिथिसत्कार ( आहारदान) से विमुख होना सबसे
कड़वे सच
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बड़ी दरिद्रता है । (सुविधि वचन पराग - अक्षय ज्योति (जुलाईसितंबर २००४ ) - पृष्ठ ४० ) दानशासन में कहा है किसी उत्तम पात्र साधुके अपने नगरमें आने पर यदि आहारदान देना नहीं हो तो लोग बहाना करते हैं कि आज हमारे घरमें कोई बीमार है, (बच्चों की परिक्षाएँ चल रही हैं, सास अथवा बहु दूसरे गाँव गई है, हमारे घर मेहमान आये हुए हैं आदि कारणों से) आज आहार नहीं बनाया जा सकता है इत्यादि । आचार्य कहते हैं कि पात्रदानमें इस प्रकार बहानाबाजी ठीक नहीं है । साधुओंका सदा संतर्पण ( पड़गाहन) करना चाहिये । यही सत्पुरुषोंका कर्तव्य है । (८/५२, पृष्ठ १९४)
दान के अभाव में.... गोम्मटसार कर्मकाण्ड-गाथा ८०१ के अनुसार जो मनुष्य समर्थ होकर भी प्रतिदिन दान करने का उद्यम नहीं करता है उसे अनेक दुःख और दारिद्र्य का संयोग करने वाले असातावेदनीय कर्म प्रचुर मात्रा में बन्ध हैं । (पृष्ठ ६८७) इसलिए सुभाषित रत्नावली में कहा है - वरं दरिद्रं न च दानहीनं... ।।१८३।।
अर्थात् - दरिद्री रहना अच्छा है किन्तु दानहीन होकर जीना अच्छा नहीं है । भिक्षा- भोजन से बुरा, वह है अधिक जघन्य । एकाकी जिस अन्न को, खाता कृपण अधन्य ।। अतिथि-भक्ति करता नहीं, होकर वैभव नाथ |
पूर्ण दरिद्री सत्य वह, मूर्ख शिरोमणि साथ || कहा भी है- दान के योग्य संपत्ति के होने पर तथा पात्र (मुनि) के भी अपने गृहके समीप आ जानेपर जिस मनुष्य की बुद्धि दान करने के लिए उत्साह को प्राप्त नहीं होती है, वह दुर्बुद्धि खानिमें प्राप्त हुए अतिशय मूल्यवान् रत्नको छोड़कर पृथिवि के तलभाग को व्यर्थ खोदता है । (पद्मनन्दि पञ्चविंशति:- २/३४, पृष्ठ ८७) अर्थात् उसकी संपत्ति व्यर्थ है ।
अपने कर्म के अनुसार कुत्ता भी अपने उदर को पूर्ण करता है और राजा भी अपने उदर को पूर्ण करता है । परन्तु प्रशंसनीय मनुष्यभव, धन एवं कड़वे सच - १०४