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का मराठी अनुवाद))
फिर भी यदि कोई साधु अपने लिए गरम पदार्थ बनाने के लिए अथवा फल काटने के लिए कहे अथवा अन्य लोग "इनको चलता है तो आप क्यों नहीं बनाते हो ?” ऐसा कहे तो भी उनका कहना अस्वीकार करना चाहिये क्योंकि धर्मोद्योत प्रश्नोत्तरमाला में कहा है। स्वकीयाः परकीयाः वा मर्यादालोपिनो नराः ।
न हि माननीयं तेषां तपो वा श्रुतमेव च ।।
अर्थात् स्वजन हो अथवा परजन हो, तपस्वी हो या विद्वान् हो किन्तु यदि वह मर्यादाओं का शास्त्राज्ञा का लोप करने वाला है तो उसका कहना नहीं मानना चाहिए । ( पृष्ठ ६६ ) आहार के समय इशारे
प्रश्न - आहार देते समय कब कौनसा पदार्थ देना चाहिये यह बात दाता के समझ में नहीं आयें तो साधु किस प्रकार से उसे इशारा करे ? समाधान आहार करने हेतु निकलने पर साधु याचना नहीं करने
के लिए मौन लेते हैं। मूलाचार में कहा है.
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वि ते अभित्थुणंति य पिंडत्थं ण वि य किंचि जायंति । मोणव्वदेण मुणिणो चरंति भिक्खं अभासंता ।। ८१९ ।। गाथार्थ भोजन के लिए किसी की स्तुति नहीं करते हैं और न कुछ भी याचना करते हैं। वे मुनि बिना बोले मौनव्रतपूर्वक भिक्षा ग्रहण करते हैं । आचारवृत्ति - ग्रास के निमित्त वे मुनि श्लोक आदि के द्वारा किसी की स्तुति नहीं करते हैं, और आहार के लिए वे किंचित् भी द्रव्य आदि की याचना भी नहीं करते हैं । वे सन्तोष से मौनपूर्वक आहार के लिए पर्यटन करते हैं। किन्तु मौन में खखार, हुंकार आदि संकेत को भी नहीं करते हैं। इस कथन से यहाँ मौनपूर्वक और नहीं बोलना इन दो प्रकार के कथनों में पुनरुक्त दोष नहीं है । अर्थात् मौन व्रत से किसीसे वार्तालाप नहीं करना- कुछ नहीं बोलनाऐसा अभिप्राय है और अभाषयन्तः से खखार, हुँ, हाँ, ताली बजाना आदि अव्यक्त शब्दों का संकेत वर्जित है, ऐसा समझना । (उत्तरार्ध पृष्ठ ६५ )
अमितगति श्रावकाचार में कहा है
कड़वे सच
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हुंकारांगुलि - खात्कार-भू- मूर्ध-चलनादिभिः । मौनं विदधता संज्ञा विधातव्या न गृद्धये ।।१२ / १०७ ।।
अर्थात् - मौन लेकर भोजन करते समय गृद्धता से हुंकार, खखार करना, अंगुलि, आँख, भ्रूकुटि, अथवा मस्तक आदि हिला कर इशारा नहीं करना चाहिए ।
इसलिए मुनि आहार के समय अयाचक वृत्ति और आत्मसम्मान की रक्षा हेतु किसी भी प्रकार से इशारे नहीं करते । कौनसी वस्तु देना चाहिए यह दातार के समझ में नहीं आये तो भी वे "लाभ से अलाभ श्रेष्ठ है" ऐसा विचार करते हुए प्रसन्न रहते हैं ।
ठंडा पानी
प्रश्न
क्या साधु फ्रीज का ठंडा पानी पी सकते हैं ? समाधान- केवल फ्रीज में ठंडा किया ही नहीं पहले गरम करके फिर किसी भी प्रकार से ठंडा किया पानी भी साधु नहीं पी सकते हैं। जिस जलका स्पर्श, रस, गंध अथवा वर्ण नहीं बदला हो, ऐसा जल पीनेवाले साधुका अपरिणत नामक दोष होता है। तद्यथा
तिलोदकं तथा तंडुलोदकं चणकोदकम् । तुषोदकं चिरान्नीर, तप्तं शीतत्वमागतम् ||४४८ ।। विभीतक हरीतक्यादिकचूर्णैस्तथाविधम् । स्वात्मीय रसवर्णादिभिश्चापरिणतं जलम् ||४४९ ।। न ग्राह्यं संयतैर्जातु सदा ग्राह्याणि तानि च । परीक्ष्य चक्षुषा सर्वाण्यहो परिणतानि च ।। ४५० ।। अर्थ - तिलों के धोने का पानी, चावलों के धोने का पानी, चनों के धोने का पानी, चावलों की भूसी के धोने का पानी तथा जो पानी बहुत देर पहले गरम किया हो और ठंडा हो गया हो अथवा हरड़, बहेड़ा आदि के चूर्णसे अपने रस वर्णको बदल न सका हो ये सब प्रकार के जल संयमियों को कभी ग्रहण नहीं करने चाहिये। जिस जलका वर्ण या रस किसी चूर्ण आदि से बदल गया हो ऐसा जल आँखसे अच्छी तरह देखकर परीक्षा कर संयमियों को ग्रहण करना चाहिये। फिर किस तरह का जल
कड़वे सच
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