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________________ बनाई हुई कोई वस्तु या दूध आदि गरम करना ऐसे अध:कर्म उस समय नहीं करना चाहिए, क्योंकि यह अध:कर्म दोष - पृथिवीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक व वनस्पतिकायिक तथा त्रसकायिक इन षट्कायिक जीवों की विराधना करके आहार उत्पन्न करना एषणा समिति के ४६ दोषों से भिन्न और सबसे बड़ा दोष कहा है। आ. सिद्धान्तसागरद्वारा प्रकाशित आहारदान शास्त्र में भी लिखा है-उत्तम दाता साधक के आने से पहले ही अन्न तथा फल आदि बनाकर तैयार रखता है, उनके आने के उपरांत आरम्भ नहीं करता है। (पृष्ठ ६६) तथा खिड़की-दरवाजे खोलना-बंद करना, सब्जी-फल आदि बनाना, चूल्हा (गॅस अथवा किसी भी प्रकार की अग्नि) जलाना, इत्यादि क्रियाएँ अज्ञानता की द्योतक हैं। (पृष्ठ ६४) आ. पुष्पदन्तसागरकृत कौन कैसे किसे क्या दे? में भी कहा है - मुनिराज के आहारचर्या को निकलने के पूर्व ही श्रावक को समस्त सामग्री तैयार करके रख लेनी चाहिए । (पृष्ठ २३) फल पहले से ही काटकर रखना चाहिए । (पृष्ठ २७) तथा आहार के समय अग्नि आदि न जलायें । (पृष्ठ २८) मूलाचार में कहा है - जो स्वयं अपने द्वारा बनाया गया है या पर से कराया गया हैं अथवा पर के द्वारा करने में अनुमोदना दी गयी है ऐसा जो भोजन बना हआ है वह अध:कर्म कहलाता है ।... यदि कोई श्रमण इस दोष को करेगा तो वह गृहस्थ जैसा ही हो जायेगा । (पूर्वार्ध - पृष्ठ ३३३) एक्को वा वि तयो वा सीहो वग्यो मयो व खादिजो । जदि खादेज स णीचो जीवयरासिं णिहंतूण ।।९२२।। आचारवृत्ति - कोई सिंह अथवा व्याघ्र या अन्य कोई हिंस्र प्राणी एक अथवा दो या तीन अथवा चार मृगों का भक्षण करते हैं तो वे हिंस्र पापी कहलाते हैं । तब फिर जो अधःकर्म के द्वारा (अनिकायिक आदि) तमाम जीवसमूह को नह करके आहार लेते हैं वे नीच-अधम क्यों नहीं हैं? अर्थात् (वे) नीच ही हैं । (उत्तरार्ध - पृष्ठ १२५-१२६) आसुप्रवर्तते योऽधी: कृतकारितानुमोदनैः । सुस्वादान्नायतास्याहो! वृथा दीक्षा दुरात्मनः ।।२५४३।। - कड़वे सच .... ............. ५७ अर्थात्- जो मूर्ख मुनि स्वादिड अन्न के लिये कृत-कारित-अनुमोदना से इन पंचपापों में (पंचसुनाओं में) अपनी प्रवृत्ति करते हैं, उन दुहों की दीक्षा लेना भी व्यर्थ समझना चाहिये। (मूलाचार प्रदीप - पृष्ठ ३९०) ऐसे भाव एवं चारित्र से हीन साधु मध्यम अपात्र हैं । (अंकाख्यान श्रेयांस कोश-भाग ३ - पृष्ठ १०) साधु आहार करने के लिए स्वयं अन्न नहीं बनाते हैं, औरों से कहकर अथवा इशारा करके भी नहीं बनवाते हैं तथा बनाने के लिए मन-वचनकायसे अनुमोदना भी नहीं करते हैं। जिस अन्न आदि बनाने में उन्होंने अनुमोदना भी की है ऐसा आहार वे अनुमति त्याग-व्रतधारी साधु ग्रहण नहीं करते हैं। साधू तो क्या, दसवी अनुमतित्याग प्रतिमा का धारी भी घर के आरम्भ, विवाह आदि में, अपने आहार-पान आदि में और धनोपार्जन में अनुमति देने का त्यागी होता है। (वीर वर्धमान चरित१८/६८) वह यह भी नहीं कहता कि मेरे लिए अमक वस्तु बनाना, जो कुछ गृहस्थ जिमाता है, जीम आता है। (वसुनन्दि श्रावकाचार-३००, पृष्ठ २७७) एषणा समिति नामक मूलगुण का पालन करनेके लिए उनके पहुँचने के बाद किसी प्रकार का आरंभ चाहे सामने हो, चाहे पीठ पीछे करके अथवा अन्य कमरे में जाकर किया जाता है तो साधु अन्तराय मानते हैं। इसलिए चौके में साधु पधारने से पहले ही वहाँ किसी भी प्रकारकी अग्निजलते कोयले, लकड़ी, चूल्हा, स्टोव्ह, गॅस, इलेक्ट्रीक सिगड़ी, आदि न हो इस बात का ध्यान रखना चाहिए। यदि कोई साधु भी गरम बनाने के लिए प्रेरित करे तो भी आरम्भ नहीं करना चाहिए। अपितु जैसा कि आ. विद्यानन्द ने कहा हैं - "साथ की आहार संबंधी कोई गलत क्रिया देखते हैं तो श्रावक उसे बतावे कि 'आपकी चर्या में यह नहीं होना चाहिए' इस प्रकार उन्हें समझाए ।" (गुरुवाणी भाग-४ - पृष्ठ ९०) (साधूंची आहार संबंधी काही चुकीची क्रिया घडत असेल तर श्रावकाने त्यांना सचेत करावे, आपल्या चर्येमध्ये असे व्हायला नको आहे.' असे नम्रपणे सांगावे.) (आनंदधारा - पृष्ठ ९६ (गुरुवाणी भाग-४ - कड़वे सच ... . . . . . . . . . . . . . . . . . . . - ५८
SR No.009960
Book TitleKadve Such
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuvandyasagar
PublisherAtmanandi Granthalaya
Publication Year
Total Pages91
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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