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ग्राह्य है
संतप्तं वा जलं ग्राह्यं, कृतादिदोष दूरगम् ।
तथा परिणतं द्रव्यं, नानावणैर्मुमुक्षुभिः ।।४५१।। अर्थ - अथवा मोक्षकी इच्छा करनेवाले संयमियोंको कृत, कारित, अनुमोदना आदिके दोषों से रहित गरम जल ग्रहण करना चाहिये अथवा अनेक वर्णके द्रव्यों से (हरड़, इलायची आदि के चूर्ण से) जिसका स्पर्श, रस, गंध अथवा वर्ण बदल गया हो; ऐसा जल ग्रहण करना चाहिये।
योत्रापरिणतान्येव तानि गृह्णाति मूढधीः।।
तस्यापरिणतो दोषो जायते सत्त्वघातकः ।।४५२।। अर्थ- जिस जलका रूप-रस आदि नहीं बदला है। किसी चूर्णके मिलाने पर भी रूप नहीं बदला है या गर्म करनेसे स्पर्श नहीं बदला है ऐसा जल जो अज्ञानी मुनि ग्रहण करता है उसके अनेक जीवोंकी हिंसा करनेवाला अपरिणत नामका दोष उत्पन्न होता है। (मूलाचार प्रदीप - पृष्ठ ६९-७०)
ठंडा पानी प्रथम तो केवल स्पर्शनेन्द्रिय के सुख के लिए होता है, दूसरे ठंडे पानी से प्यास भी जल्दी लगती है। परन्तु गरम पानी पीने से खाये हए अन्न का पचन अच्छे प्रकार से होता है, जिससे दाँतों पर मल नहीं चढ़ता है। भोजन में मीठे अथवा दाँतों में चिपकने/फँसने वाले पदार्थ अन्त में नहीं लेकर पर्याप्त गरम पानी लेने पर दाँतों के रोग नहीं होते हैं।
जो साधु अदंतधावन मूलगुण का भंग कर दंतमंजन करना, नींब आदि से दाँत घिसना, लौंग अथवा काड़ी आदि से दाँत साफ करना ऐसे दोष करते हैं, उसके मूल में प्रमाद के साथ-साथ आहार के क्रम विषयक अज्ञान - आहार करते समय मीठी वस्तुएँ पीछे से लेना, बर्फ तथा आईस्क्रीम जैसी अनिष्ट-अभक्ष्य वस्तुएँ खाना आदि और ठंडा पानी लेना ये भी कारण हैं।
अतएव साधुओं को गरम पानी पीना ही योग्य है क्योंकि वह सुलभता से प्राप्त हो सकता है। अन्य प्रकारसे परिणत जल कोई विशिष्ट ज्ञानी ही दे सकते हैं। पुन: उष्ण जल चारित्र के पालन में सहायक भी होता है।
दंत मंजन प्रश्न - आहार करने के उपरान्त मुनि मंजन अथवा काड़ी आदि से दाँत साफ कर सकते हैं या नहीं ?
समाधान - मुनियों के २८ मूलगुणों में एक अदंतधावन मूलगुण है।
छहढाला में कहा भी है - जिनके न न्हौन न दंतधावन, लेश अंबर आवरण ६/५/
अदंतधावन का अर्थ है - किसी भी बाहरी वस्तुसे दाँतों को साफ करने का प्रयत्न नहीं करना। अतः मनि किसी भी प्रकार के मंजन, नींब, दाँतून, काड़ी आदि का उपयोग करके अपने दाँत साफ नहीं कर सकते।
मूलाचार (पूर्वार्ध) में अदंतधावन मूलगुण का स्वरूप कहा है - ___अंगुलिणहावलेहणिकलीहिं पासाणछल्लियादीहिं ।
___ दंतमलासोहणयं संजमगुत्ती अदंतमणं ।।३३।। गाथार्थ - अंगुली, नख, दांतोन और तृण विशेष के द्वारा, पत्थर या छाल आदि के द्वारा दॉत के मल का शोधन नहीं करना यह संयम की रक्षारूप अवन्तधावन व्रत हैं । आचारवृत्ति - अंगुली-हाथ के अग्रभाग का अवयव, नख, अवलेखनीजिसके द्वारा मल निकाला जाता हैं वह दांतोन आदि, कलि-तृण विशेष, पत्थर और वृक्षों की छाल । यहाँ आदि शब्द से खप्पर के टुकड़े, चावल की बत्ती आदि ग्रहण की जाती हैं। इन सभी के द्वारा दाँतों का मल नहीं निकालना यह इन्द्रियसंयम की रक्षा के निमित्त अदंतधावन व्रत है। (पृष्ठ ४१) तथा मूलाचार प्रदीप में भी कहा है -
स्वनखांगुलिपाषाणलेखिनीखर्परादिभिः । तृणत्वजादिकैर्यश्च दंतानां मलसंचयः ।।१३२५।। न निराक्रियते जातु वैराग्याय मुनीश्वरैः।
अदंतवनमेवात्र तद्रागादिनिवारकम् ।।१३२६।। अर्थ - मुनिराज अपना वैराग्य बढाने के लिये अपने नखों से, उंगली से,
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